नौकरी के मेले में मेरा भी एक दिन। चौंक गई हूं मीडिया के हालात देख कर। दो पोस्ट और सैंकड़ो की संख्या में हम। राज्यसभा टीवी में आज प्रोडयूसर के दो रिक्तियों के लिए इंटरव्यू था। दोपहर दो बजे सभी को रिपोर्ट कर देना था लेकिन पत्रकार सुबह 10 बजे से कतार में थे।
जॉब मेले के बारे में आप लोगों में से कई लोगों
ने कई बार सुना होगा। बेहतरीन कर्मचारी की तलाश में दिग्गज कंपनियां ऐसे ही जॉब
मेले आयोजित करवाती हैं फिर इसमें शिरकत करती हैं। मेलों में कम दामों पर
थोक के भाव में उन्हें बेहतरीन कर्मचारी मिल भी जाते हैं। अक्सर
बेरोजगार बहुतायत में पहुंचते हैं। लेकिन कभी कभी कुछ नए और अलग की तलाश वाले किसी
कंपनी में कार्यरत भी रुख कर लेते हैं। चूंकि वे कामकाजी हैं और
उनकी नौकरी बरकरार है तो नामी कंपनियां भी उन्हें ही ऑफर थमा कर चली जाती हैं। और
बेरोजगार बेचारा अपने भाग्य को कोसता हुआ एक बार फिर थके पांव से घर की ओर लौट
लेता है। कुछ ऐसे ही हालात इन दिनों हिंदी मीडिया में कार्यरत पत्रकारों के हैं।
कुकुरमुत्ते की तरह चिटफंडिया कंपनियां बाजार में मीडिया हाउस लाती हैं और बरसाती
मेढक की तरह गायब भी हो जाती हैं। पिछले कुछ सालों में मीडिया खासकर हिंदी मीडिया
गर्त की ओर ढकेला जा रहा है। इसे ढकेलने वाले कोई और नहीं इसके कर्ता धर्ता हैं। अच्छा
ये बातें फिर कभी । यहां बात हो रही है बेरोजगार होते पत्रकारों की। बेरोजगार
पत्रकारों का आलम यह है कि जिसे जहां थोडी भी उम्मीद नजर आ रही है वह बिना यह
जाने की वहां उसकी प्रतिभा को पहचान मिलेगी या नहीं बस वो वहां पहुंचने की जददोजहद
में लगा हुआ है। चाहें इसके लिए उसे 2000 किलोमीटर की दूरी ही क्यों न तय करनी
पड़ रही हो। 19 दिसंबर को यही नजारा देखने को मिला राज्यसभा टेलीविजन के वॉक इन
इंटरव्यू में। वैसे ये इंटरव्यू तो कई पोस्ट के लिए और कई दिनों से चल रहे थे,
शायद हर दिन का यही नजारा रहा होगा जैसा शुक्रवार को देखने को मिला। चूंकि इस
इंटरव्यू का हिस्सा मैं और मेरे कई साथी थे तो हमने इस बारीकी को गहराई से समझने
की कोशिश की। पिछले दिनों कुछ मीडिया हाउस बंद होने की वजह से हिंदी पत्रकार
बहुतायत में बेरोजगार हुए हैं तो उनके लिए राज्य सभा की ये वैकेंसी उम्मीद की
किरन बनी हुई थी। जिन लोगों को दोपहर दो बजे रिपोर्ट करने के लिए कहा गया था वे
सुबह दस बजेसे ही कतार में खड़े थे। लेकिन राज्यसभा टीवी की वैकेंसी उस समय मजाक
साबित हुई जब प्रिंट मीडिया में अच्छा तर्जुबा रखने वालों को बाहर का रास्ता
बेदर्दी से दिखा दिया गया। क्योंकि उन्हें सिर्फ टीवी के पत्रकार ही चाहिए थे।
वैसे यह बात विज्ञापन में साफ साफ लिखी गई थी लेकिन बेरोजगारों की मन:स्थिति समझिए
हर कोई जानता है प्रतियोगिता के और न्यू मीडिया के इस युग में टेक्नॉलॉजी समझना
हर किसी के बायं हाथ का खेल है और उसमें समय भी नहीं लगता है। यही सोच लिए प्रिंट
मीडिया के बेरोजगार और बेहतरी की तलाश में कई पत्रकार कतार में घंटो अपना समय
बर्बाद करते रहे लेकिन जब उन्हें बिना इंटरव्यू दिए वापस भेजा गया तो यकीन मानिए
बेरोजगार होने से ज्यादा बेइज्जती महसूस हो रही थी। कई लोग तो मुंबई, कोलकाता,
चेन्नै, लखनऊ, मथुरा और न जाने कहां कहां से यहां एक अदद नौकरी की तलाश में यहां
पहुंचे थे।
राज्यसभा टीवी का यह नजारा किसी मेले जैसा ही
था। महज दो दो पोस्ट की रिक्तियां निकाली गईं थीं और हजारों की संख्या में लोग
पहुंचे थे। व्यवस्था बनाए रखना मुश्किल हो रहा था। हर किसी को मौका मिले इसलिए
टोकन नंबर, वेरीफिकेशन और कतार लगाए जाने तक की व्यवस्था की गई थी लेकिन सब
बेकार। इंटरव्यू के लिए महज चार से छह साल के तर्जुबे वाले लोग ही बुलाए गए थे
लेकिन वहां कतार में जो लोग खड़े थे उनका एक्सपीरिएंस चौंकाने वाला था। कतार में
खड़े हर किसी का तर्जुबा 15-16 साल से कम तो था ही नहीं। यह छोडि़ए हर दूसरा तीसरे
से आंख बचा रहा था। शिष्य गुरू के आगे नतमस्तक हो या उसे कंपटीटर समझे वहां यह
बड़ी दुविधा दिखाई दे रही थी। जाना पहचाना चेहरा देख या तो लोग एक दूसरे से नजरें
छुपा रहे थे या फिर चरणस्पर्श करते देखे जा रहे थे। उस भीड़ में इक्के दुक्के
लोग ही होंगे जिन्हें जुम्मे जुम्मे दो चार साल हुए होंगे मीडिया में। लेकिन एक
बात समझने वाली है कि क्या सचमुच ऐसा मेला लगाने की जरूरत थी या ऐसे विज्ञापन की
आवश्यकता थी। दो रिक्तियां तो हर दिन आने वाले बायोडाटा से भी भरी जा सकती थीं।
चैनल में सैंकड़ो लोग काम करते हैं अंदर के लोगों को ही कह देते कि भाई अपने लोगों
को इंटरव्यू के लिए बुला लो।
भारत
जैसे महान देश में जहां महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है ऐसे में उनका मजाक क्या उड़ाना। इस
पूरे मामले में हास्यास्पद तो ये था कि जिन बेचारे दो पत्रकारों के कंधो पर आने
वाले पत्रकारों को संभालने की जिम्मेदारी दी गई थी वे बेचारे लाचार नजर आ रहे थे।
वे तब क्या करें जब उनका ही कई कई साल सीनियर जिनसे उन्होंने मीडिया की बारीकियां
सीखीं है वे सीना चौड़ा किए हुए सामाने आएं और कहे क्यों तुम मुझे भी कतार में ही
खड़ा करोगे। मैंने तो तुम्हें लिखना पढना सिखाया था, सब भूल गए। बेचारा बच्चा
पहले उन सीनियर का पैर छूता फिर उन्हें टोकन थमा कर नजरें चुराता नजर आता। करता
भी क्या बेचारा, उसके हाथ में तो कुछ था ही नहीं, टोकन और लाइन में लगाने के
अलावा। बहरहाल, मीडिया की हालत दिन ब दिन बिगड़ रही है खासकर हम हिंदी मीडिया की। बड़े
मीडिया हाउस वाले अपने लोगों को ही एंट़्री देते हैं अपने संसथानों में बेचारे वे
कहां जाएं जिनका कोई गॉड फादर नहीं है इस दुनिया में। उसपर यहां के हालत, हर हफते कुकुरमुत्ते
की तरह चैनल, अखबार और पत्रिकाएं निकलती हैं और बरसात की मेंढक की तरह बारिश खत्म
होते ही गुम हो जाती हैं। फंस जाते हैं पत्रकार जो बरसाती खेल में कहीं के नहीं
रहते न घर के न घाट के। ऐसे में जब इंटरव्यू वॉक इन हो और उसमें कैटगरी टैलेंट पर
नहीं माध्यम के आधार पर बांट दी जाए तो बेरोजगार पत्रकारों का मालिक फिर भगवान ही
है। अगर सचमुच भगवान है तो।
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