पूजा मेहरोत्राबनारस से लौटकर पूजा मेहरोत्रामोतिहारी (बिहार) की रहने वाली देवेश्वरी अपनी उम्र 90 साल बताती हैं। उन्हें ठीक से सुनाई नहीं देता, आंखें भी अब साथ छोड़ रही हैं। चश्मा तो लगा है लेकिन ठीक से दिखता नहीं है। ठीक से चल भी नहीं पाती हैं। तीन बेटियों की मां देवेश्वरी का भरा-पूरा परिवार है। नाती, नातिनी और दामाद सभी काफी पैसे वाले खाते-पीते लोग हैं लेकिन वह खुद बेसहारा हो चुकी हैं। वह कहती हैं, ‘बेटा, अब ऐसे रहने की आदत हो गई है।’ ‘अम्मा...’ जैसे ही हमने उनसे कुछ पूछने की कोशिश की, डबडबाई मां की आंखें मानो हमसे ही कई सवाल पूछने लगीं। डबडबाती आंखों को पोंछकर जैसे ही हमने उन्हें गले लगाया कई दिनों से छुपा दर्द बरबस बह निकला। यहां कैसे पहुंच गई? परिवार वाले कहां हैं? कांपते होंठो से बताती हैं, ‘तीन बेटी दामाद, नाती, नातिन सभी हैं। दो बेटे भी थे दोनों ही स्वर्ग सिधार गए। बहुएं भी अपने-अपने घर चली गर्इं तो हम यहां आ गए।’ ‘आपको यहां का पता कैसे चला?’ इस सवाल के जवाब में मुस्कराने की नाकाम कोशिश करते हुए कहती हैं, ‘बेटा, 18 साल हो गए यहां रहते हुए। अब आदत हो गई है अकेले रहने की। अब बस बच्चों की धुंधली याद है, जिसकेसहारे 18 साल बीत गए हैं। दो-चार दिन और बचे हैं, वह भी बीत जाएंगे।’ देवेश्वरी बताती हैं कि घर- परिवार, जमीन जायदाद-गहना सब कुछ था। छोटी बेटी ने धोखे से सब कुछ अपने नाम करा लिया और यहां रख गई। बोली, ‘वहां अकेले घर में रहोगी, कोई देखने वाला नहीं है। यहां कई औरतें हैं,सब मिलजुल कर रहोगी तो अच्छा लगेगा। हम बहनें भी आती रहेंगी।’ शुरू-शुरू में तो छोटी बहुत सारा सामान लेकर आती रही और अपने साथ ले भी जाती थीलेकिन जैसे-जैसे समय बदलता गया, उसके साथ सब कुछ खत्म होता गया। दोनों बड़ी बेटियों ने इसलिए साथ छोड़ दिया क्योंकि मैंने सब कुछ छोटी के नाम कर दिया था। उन्होंने आरोप लगाया कि तुमने सब कुछ उसके नाम कर दिया, फिर तुम्हमारे पास कैसे रहोगी? दामाद हमें ताने मारता है। यह अकेली देवेश्वरी की कहानी नहीं है, बनारस के पांच आश्रमों में ऐसी सैकड़ों महिलाएं मिल जाएंगी, जिन्हें पति की मृत्यु के बाद उनके परिवार वाले, बेटे-बहू यहां तक कि बेटियों ने भी वृद्धाश्रमों में जीवन के आखिरी क्षणों में मरने को छोड़ दिया है। यह पूछने पर कि क्या बेटियां बिल्कुल नहीं आतीं? वह बोलीं, ‘पांच-छह महीने पर बड़ी बेटी नातिन के साथ आती, कहती है नौकर को भी दो रोटी देते हैं तुमको भी देंगे। मझली भी बोलती है लेकिन ऐसी बात बोलती है कि मन दुखी हो जाता है इसलिए अब मन नहीं करता है उनके पास जाने का।’ वर्षों से परिवार से अलग रहने की पीड़ा, अपनों के प्यार को तरसती-तलाशती आंखें, उस पर अकेलापन और पहाड़-सी लगती जिंदगी के बीच जैसे ही किसी का आत्मीय स्पर्श मिलता है, आंखें बरबस छलक जाती हैं और डबडबाई आंखें बरबस कई सवाल करती हुई प्रतीत होती हैं। लरजते होंठ बहुत कुछ पूछना-कहना चाहते हैं। यह किसी एक के साथ नहीं है, बल्कि सैकड़ों की संख्या में ऐसी महिलाएं हैं, जिनके परिवार वालों ने उन्हें बोझ मानकर या तो उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया है या फिर किसी बहाने से उन्हें बनारस की सड़कों पर ठोकरें खाने को छोड़ गए जहां से भटकती हुई ये महिलाएं विधवा आश्रमों में जीवन बिता रही हैं। जब भी उन्हें प्यारवाला स्पर्श मिलता है बस वो सब कुछ भूलकर जी भर के उस पल को समेट लेती हैं। वृंदावन और बनारस व वृद्धाश्रमों में सैकड़ों माएं मौजूद हैं जिन्हें उनकी औलादें दो जून की रोटी नहीं दे पार्इं और बहाने से यहां छोड़ गए हैं। पिछले दिनों बनारस के विभिन्न आश्रमों में कई-कई वर्षों से जीवन जी रहीं कुछ ऐसी ही ‘विधवा मांओं’ से मुलाकात हुई। पति की मृत्यु के बाद किसी के बेटे ने तो किसी की बेटी ने तो किसी के परिवारवालों ने उन्हें इतना परेशान कर दिया कि वे या तो सबकुछ छोड़कर खुद घर से निकल गर्इं या फिर किसी नेबहाने से यहां लाकर उन्हें छोड़ दिया। अब समय बदल रहा है। गैर-सरकारी संस्था सुलभ इंटरनेशनल इन विधवा महिलाओं के जीवन में खुशियां ला रही है। करीब १२०० महिलाओं को प्रति महीने दो हजार रुपये दे रही है। इन महिलाओं के जीवन में खुशियां भी लौट रही हैं। कई वर्षों बाद जहां इन महिलाओं ने होली खेली, वहीं अब इन महिलाओें ने अपने प्रधानमंत्री भाई नरेंद्र मोदी को 1000 राखियां बनाकर भेजी हैं। अब इन बुजुर्ग महिलाओं ने जीना सीख लिया है। जन्माष्टमी उत्सव की तैयारी भी जोर-शोर से कर रही हैं। लेकिन इन सबके बीच इन महिलाओं के लिए सुलभ इंटरनेशनल ने टोल फ्री नंबर १८००१८००५६९७ शुरू किया है। इस नंबर पर फोन आने पर एंबुलेंस इन महिलाओं को आश्रम लेकर आएगी और यहां उनकी देखरेख होगी। सुलभ के जनक बिंदेश्वरी पाठक बताते हैं कि महज २००० रुपये मिलने से इन विधवा महिलाओं की उपयोगिता इनके परिवार में बढ़ गई है। वृंदावन आश्रम में रह रहीं ८० फीसदी महिलाओं के परिवार वाले उन्हें अपने साथ वापस ले जाने को तैयार हो गए हैं और हमने उन्हें विश्वास दिलाया है कि हम उनके परिवार में जाने के बाद भी उनको पेंशन इसी प्रकार १० तारीख को देते रहेंगे। बनारस में पिछले दिनों राजकीय वृद्ध महिला असक्त आश्रम दुर्गाकुंड में कुछ वृद्ध विधवाओं से मिलने के बाद पता चला कि अब सिर्फ बेटे ही नहीं बेटियां भी मां-बाप को निकालने में गुरेज नहीं कर रही हैं। इन आश्रमों में हमें अधिकतर वो महिलाएं मिलीं जिनकी बेटियों ने उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया। बनारस की रहने वाली दुर्गा देवी भी बेटियों द्वारा सताई हुई मां हैं। वह पढ़ी-लिखी भी हैं और खेत-खलिहान की मालकिन भी हैं। पति की मृत्यु के बाद उन्होंने तीन-तीन बेटियों की शादी की। वह बेटियों की शादी के लिए जमीन बेचती गर्इं। जब उनके जीवन चलाने के लिए थोड़ी जमीन बच गई तो तीनों बेटियों ने मिलकर समझाया कि अब अकेली क्यों रह रही हो, हम तीनों तुम्हारी देखभाल करेंगे। बची हुई प्रोपर्टी भी बेच दो और हम तीनों में बांट दो। आंखें कमजोर हो रही थीं, शरीर भी थक रहा था, दुर्गा देवी ने भी अड़ोसी-पड़ोसी की सलाह के बाद घर और बची हुई जमीन बेचीं और बारी-बारी से तीनों बेटियों के पास चार-चार महीने रहने लगीं। तीनों अच्छे परिवारों में हैं। परिवार में नाती-नातिन डॉक्टर तो कोई इंजीनियर है, जबकि परिवार में वकील भी हैं। लेकिन इन सब पढ़े-लिखे लोगों के बीच दुर्गा जी वृद्धा आश्रम कैसे पहुंच गर्इं? क्या किसी ने नहीं रोका? कपकपाती आवाज से बालीं, ‘बेटा शुरू से ही सिर्फ देती रही हूं अब बेटियां तो बेटियां उनके बच्चे भी बुरा व्यवहार करने लगे थे’ और एक दिन जब मैं बहुत परेशान हो गई तो सब छोड़कर निकल आई। किसी को नहीं बताया कि कहां हूं। मैं टेलीविजन भी देखती हूं और अखबार भी पढ़ती हूं। किसी ने भी मुझे नहीं खोजा है। शायद मैं उन पर भार बन चुकी थी। अब खुश रहने की कोशिश कर रही हूं।’ मुस्कराहट और बरबस छलकती आंखों के बीच दुर्गाकुंड स्थित वृद्धाश्रम की वृद्ध महिलाओं की आंखों में हमारे लिए अलग सी चमक देखने को मिली। उन्होंने दिल खोलकर हमसे अपने सुख-दुख साझा किए। इन्हीं में से एक मिलीं प्रेमलता। करीब ७५ वर्ष की प्रेमलता अपने परिवार वालों से इतनी दुखी थीं कि उन्होंने साफ कह दिया कि मुझे नहीं याद कि पंजाब से मैं कब यहां पहुंच गई। किसी का नाम-निशानी कुछ नहीं बताया। गहरी और सवाल करती आंखें मानों पूछ रहीं थीं कि कहां कमी छोड़ दी थी परवरिश में हमने कि आज हमें यह दिन देखना पड़ रहा है। आखिर हमारे बच्चों ने क्यों हमें इस तरह से निकाल दिया? प्रेमलता कहती हैं कि मुझे याद नहीं कि मैं यहां कब से रह रही हूं। हमसे ठीक से बात भी नहीं की, लेकिन जब उनका मन थोड़ा हलका हुआ तो उन्होंने वापस बुलाकर कहा कि मैं आठ साल पहले यहां आई थी। बेटा-बहू पोता-पोती हर बात पर ताना मारने लगे थे। एक दिन बर्दाश्त नहीं हुआ और बनारस की ट्रेन में बैठकर यहां पहुंच गई। विधवा हुई महिलाओं की कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। बनारस के नेपाली मंदिर आश्रम, सारनाथ में बने आश्रम, बिड़ला भवन और दुर्गाकुंड में बने आश्रम में लगभग २०० विधवा महिलाएं रह रही हैं। एक-दो महिलाएं हर दिन यहां आ ही जाती हैं। विद्यावती त्रिवेदी काशी मुक्ति माता लाहौरी टोल में बने बिड़ला आश्रम में रहती हैं। वह कहती हैं कि वह 30 साल से आश्रम में रह रही हैं। पति को गुजरे कितने वर्ष हो गए, उन्हें खुद भी याद नहीं। बेटा भी गुजरात में हैं। कभी-कभी याद करता है या मिलने भी आता है। वहीं दुर्गा देवी और अन्नपूर्णा देवी भी रहती हैं। शादी के बाद बनारस आ गई थीं, घर राजस्थान में है। पति हलवाई थे। अचानक बीमार पड़े,इलाज में सबकुछ खत्म हो गया। बेटा-बहू और पोता राजस्थान चले गए, वह अकेली बनारस में रह गई हैं। बेटा कभी-कभी मिलने आ जाता है। संग चलने को भी कहता है लेकिन वह नहीं जाती हैं। अब उन्हें सुलभ वाले हर महीने दो हजार रुपये देते हैं। तब से जिंदगी आसान हो गई है। वह सोच रही हैं कि उनकी दवा का खर्च निकल जाएगा अब वह बेटे के पास जाने को तैयार हो गई हैं। शंकुतला देवी भी करीब 70 साल की हैं। बताती हैं कि पति की मृत्यु के बाद देवर और जेठ ने घर से निकाल दिया। वह अपनी नन्ही सी बेटी को लेकर बनारस चली आई थीं, देखते-देखते समय बीत गया। बेटी की शादी कर दी है। पति के साथ बेटी खुश हैं। हम दोनों मां-बेटी हर दिन कई घरों में खाना बनाने का काम करती हैं। खुश है। पिछले दिनों दुर्गाकुंड स्थित वृद्धाश्रम में ऐसी महिलाओं के लिए एंबुलेंस सेवा और टोल फ्री नंबर शुरू किया गया है। जिस पर बनारस के कोनों से प्रति दिन लगभग एक-दो बुजुर्ग महिलाओं के रेलवे स्टेशन या शहर के किसी कोने में पड़े होने या बीमार होने की सूचना आ ही जाती है। आखिर क्यों? 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