Saturday 29 August 2015

आप बदलिए बच्‍चे खुद ही बदल जायेंगे


आप बदलिये, बच्‍चे खुद ही बदल जायेंगे

Posted On August - 30 - 2015

पेरेंटिंग

पूजा मेहरोत्रा
बाल मन बड़ा ही सुलभ होता है, बिलकुल कच्‍ची मिट्टी की तरह। जिस आकार में गढ़ेंगे, वे बनते चले जाएंगे। यदि बच्‍चे को बेहतर इंसान बनाना है तो पहले खुद को बदलना होगा। अब सवाल यह है कि आप बच्‍चों के साथ कैसा व्‍यवहार करें कि वह अनुशासन में रहें और उनकी शैतानियां शिकायत का रूप न लें पायें।
न डांटें सबके सामने
अक्‍सर देखा गया है कि अभिभावक बच्‍चों को जहां देखो भीड़ भाड़ वाली जगह पर, मेहमानों के सामने, स्‍कूल में, दोस्‍तों के सामने कहीं भी डांट देते हैं। इससे बाल मन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए सही परवरिश के लिए हालात को समझना बूझना भी बहुत जरूरी है। सभी बच्‍चों को एक तरह की परवरिश नहीं दी जा सकती है। कुछ बच्‍चे बहुत संवेदनशील होते हैं तो कुछ जिद्दी, कुछ अपनी मर्जी के मालिक, कुछ छोटी-छोटी बातों पर चिल्‍लाने वाले। बात बच्‍चों को प्‍यार करने की हो या फिर सख्‍ती बरतने की, हर बच्‍चे का अलग तरह से ख्‍याल रखना होता है। इसलिए बच्‍चों को बेहतर इंसान बनाने के लिए पहले आपका बदलना भी जरूरी है।
संवेदनशील बनायें
अक्‍सर मां-बाप बच्‍चों के साथ ऐसे व्‍यवहार करते हैं जैसे वे जो बोलें बच्‍चे को वैसा ही करना होगा। जैसे वो उनकी ‘प्रॉपर्टी’ हों। नहीं, पहले तो बस आप ये मानिए कि आप उस बच्‍चे को दुनिया में लाने का एकमात्र जरिया हैं। हां, उस बच्‍चे को बेहतरीन इंसान बनाने का दारोमदार आप पर जरूर है। आप उसे पालते-पोसते और बड़ा होते हुए एक बेहतरीन इंसान बनाइए। उसे गलत और सही की पहचान कराइए। देखिए, उसकी गलतियों को सुधारिए। मत भूलिए कि वो देश का आने वाला कल है। आप जैसी परवरिश करेंगे, वे वैसे इंसान बनेंगे।
बदलें घर का माहौल
इन दिनों बहुत बड़ी शिकायत है कि बच्‍चे बड़े बुजुर्गों की रिस्‍पेक्‍ट नहीं करते, महिलाओं के साथ, बहन के साथ उनका व्‍यवहार अच्‍छा नहीं है। यदि आप घर में महिलाओं के साथ बेहतर व्‍यवहार रखेंगे तो बाहर वे महिलाओं के साथ वैसे ही व्‍यवहार करेंगे, इसलिए घर का माहौल बदलना बहुत जरूरी है। बचपन से ही उन्‍हें लोगों खासकर महिलाओं की रिसपेक्‍ट करना सिखाइए। अक्‍सर छोटे छोटे से लड़के लड़कियों को देखते ही अजीब-अजीब सी हरकत करने लगते हैं, बालों में हाथ देने से लेकर कुछ-कुछ अजीब अंदाज में बोलते हैं। कुछ बच्‍चे अश्‍लील हरकतें करते, अश्‍लील गाना गाते हुए भी सुने गए हैं। अच्‍छा हो कि आप उन्हें बचपन से ही महिलाओं के बराबरी के हक की जानकारी दें। घर में पिता अपनी पत्नी को सम्मान दें। बच्चों के सामने लड़ाई-झगड़ा न करें।
बच्‍चों की बढ़ती उम्र पर रखें नजर
बच्‍चे अक्‍सर बढती उम्र में शारीरिक परिवर्तन की वजह से उग्र हो जाते हैं। ऐसे में वे कई बार विद्रोही हरकतें करते हैं। उस समय बच्‍चों पर नजर रखना बहुत जरूरी होता है। आज कल के बच्‍चे अपने करियर को लेकर बचपन से ही बहुत संजीदा होते हैं, लेकिन पेरेंटस उन पर अपनी मनमर्जी थोपते हैं। उनको जो बनने की इच्‍छा है, उसे बनने में मदद करें। अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो वे आपके सामने तो अच्‍छा व्‍यवहार करेंगे लेकिन आपके पीठ पीछे वो ऐसी हरकतें करेंगे जिसकी आपने कल्‍पना भी नहीं की होगी।
लालच देकर काम न करायें
अक्‍सर देखा गया है कि मां-बाप बातों-बातों में बच्‍चों को लालच देते हैं-अगर तुम ये काम कर दोगे तो हम तुम्‍हें ये चीज लाकर देंगे। बच्‍चों को दिया हुआ लालच उन्‍हें बिगड़ैल बना सकता है। हां, एक बात आप जरूर करें उनसे दोस्‍ती करें, जब भी बच्‍चा जिद करे तो उसका जवाब उग्रता से न देकर प्‍यार से दें। बच्‍चे इन दिनों सबसे ज्‍यादा समय या तो इंटरनेट पर बिताते हैं या फिर कार्टून देखने में। बच्‍चे कौन सा कार्टून देख रहे हैं और इंटरनेट पर क्‍या-क्‍या साइट देख सुन रहे हैं, इस पर ध्यान रखें। आप टीवी पर ढंग के कार्यक्रम देखें ताकि बच्चों का झुकाव भी अच्छे कार्यक्रमों की तरफ हो। यदि आपको अपने बच्‍चों को बेहतर इंसान बनाना है तो पहले आपको सुधरना होगा। तो इंतजार न करें। अच्छे इंसान बनें, बच्‍चे आपको देखकर खुद ब खुद सीख जाएंगे।

बीमारू राज्‍य नहीं है बिहार दशरथ मांझी जैसे जुनूनी रहते हैं बिहार में

बीमारू नहीं दशरथ मांझी जैसे जुनूनी रहते हैं बिहार में- केतन मेहता

हम आज के युवा बहुत जल्‍दी बहुत कुछ पा लेना चाहते हैं। हमारे में बर्दाश्‍त करने की क्षमता न के बराबर रह गई है। हम अपनी जरा सी नाकामयाबी देखते ही घबरा जाते हैं। कई बार आत्‍महत्‍या करने जैसे कदम तक उठा लेते हैं। ऐसे समय में दशरथ मांझी पर बनाई गई ये फिल्‍म युवाओं में नया जोश और होश भरेगी। दशरथ मांझी जब मुख्‍यमंत्री नितीश कुमार से मिलने पहुंचे थे तो नितीश कुमार उनके आदर में न केवल खड़े हो गए थे बल्कि उन्‍हें अपनी मुख्‍यमंत्री की कुर्सी तक पर बिठाया था। इसलिए शायद बड़े बुजुर्ग कह गए हैं मेहनत कभी खराब नहीं जाती।  
फिल्‍म दशरथ मांझी द माउंटेन मैन फिल्‍म को एक साजिश के तहत जहां दस दिन पहले लीक कर दिया जाता है। वहीं फिल्‍म की स्क्रिप्‍ट तो कभी फगुनिया के पहनावे को लेकर कई सवाल उठाए गए हैं। लेकिन यकीन मानिए जब आप फिल्‍म देखने जाएं तो आप उस व्‍यक्ति के 22 साल के दिन रात के परिश्रम, मेहनत और बेचारगी के बारे मे सोचिएगा। कि कैसे दशरथ मांझी ने एक छेनी और हथौड़ी से पूरे पहाड़़ को चीड़ कर रख दिया। कितना जीवट था वो इंसान जिसने सांप के काटे जाने पर अपना अंगूठा ही काट दिया। भीषण अकाल पड़ने पर भी उसने हार नहीं मानी बल्कि पड़ा रहा वहीं। फिल्‍म में नवाज ने अपनी अदाकारी और कलाकारी को निचोड़ कर रख दिया है।  फिल्‍म के राइटर और निर्देशक केतन मेहता से जब पूछा कि दशरथ मांझी को तो बिहार में भी लोग नहीं जानते होंगे फिर आपने कब सुना और पूरी फिल्‍म बनाने की कैसे ठान ली- इस सवाल के जवाब में केतन मुस्‍कुराते हुए कहते हैं बहुत जरूरत है समाज को खासकर युवाओं को यह बताने की हमारे बीच में कोई ऐसा आदमी भी है। जो ऐसे कारनामे कर जाता है। जब मैंने 2007 में पहली बार सुना तो कुछ देर के लिए मैं भी सन्‍न रह गया। क्‍या बिहार में एक ऐसा आदमी है जो सिर्फ एक छेनी हथौड़ी लेकर पहाड़ काटने निकल पड़ा था और 22 साल में उसने पहाड़ काट कर ही दम लिया। एक बार को अंदर ही अंदर दिल उस व्‍यक्ति को सैल्‍यूट किया और तभी सोच लिया था कि इसके बारे में और जानना है। मैं लगातार व्‍यस्‍त था लेकिन मेरे दिमाग में दशरथ मांझी हर दिन रहे। जैसे ही मैंने अपने सारे पेडिंग काम पूरे किए उसके बाद मैं सिर्फ ढाई साल शोध करने में लगाया कि कैसे इसे परदे पर उतारा जाए।
दशरथ मांझी सिर्फ एक माउंटेन मैन नहीं है बल्कि हमारे युवाओं के लिए इंस‍पीरेशन है। युवा जो बहुत जल्‍दी हार मान जाते हैं उनके लिए  संदेश है। जो यह बताता है कि इंपोसिबिल कुछ भी नहीं है। इंपोसिबिल और हार मानना हमारे दिमाग का फितूर है। कोई सोच सकता है कि कोई अपनी वाइफ से इतना प्‍यार कर सकता है कि उसकी खातिर पहाड़ तोडने की ठान लेता है और तब तक नहीं छोड़ता जब तक तोड़ नहीं लेता। हर इंसान के अंदर एक दशरथ मांझी है बस उसे पहचानना होगा। दशरथ मांझी के गांव में जब हम शूटिंग कर रहे थे तो गांव वाले बताते हैं कि वो पांच फुट का इंसान बहुत ही मजाकिया था, जब वो हंसता था तो दिल खोल कर हंसता था। बीबी से बहुत प्‍यार करता था।
लेकिन बिहारियों को हमेशा कमतर आंका जाता रहा है, बीमारू राज्‍य कहा जाता है। बिहार प्रवास के दौरान कितना बीमारू लगा बिहार
देखिए ये सब राजनीतिक बातें हैं। अगर बिहार और बिहार के लोग न हों तो आप समझ नहीं सकतीं क्‍या हो जाए देश का।  मैं तो बस एक ही बात कहना चाहता हूं कि विश्‍व को कभी नहीं भूलना चाहिए कि बिहार बुद्ध, महावीर, अशोका, मौर्या जैसे शूरवीरों की धरती है जिसने पूरी दुनिया में भारत को एक स्‍थान दिलाया है। वक्‍त कभी टिक कर नहीं रहता। जिंदगी में ही नहीं बल्कि समाज में भी और राज्‍यों में भी कभी अच्‍छा तो कभी बुरा वक्‍त आता है। बिहार अपने डाउनफॉल में हो सकता है लेकिन बिहार और बिहारी कभी भी कमतर नहीं हो सकते।
बिहार के कुछ इलाके खासकर गया के आस पास नेक्‍सलाइट का इलाका कहा जाता है, क्‍या आपको ये पता था, डर नहीं लगा- सवाल सुन कर थोड़ा चौंकते हुए केतन बताते हैं कि जब हमने बिहार में दशरथ मांझी के गांव में शूटिंग करने का मन बनाया और पूरी 100 लोगों की यूनिट तैयार हुई तो हमें बिहार और वहां के नक्‍सलाइट एक्टिविटी को लेकर बहुत डराया गया था। लेकिन हमने सोच लिया था कोई अल्‍टरनेटिव नहीं हमें सबकुछ ओरिजिनल चाहिए और हमने डेढ महीने तक वहां शूटिंग की। टीम बोधगया में रूकी थी और वहां से गहलोर मांझी का गांव डेढ घंटे की दूरी पर था। मजेदार यादें हैं। हां गया कि डीएम वंदना प्रेयसी और एस पी कुमार ने हमें पूरा सपोर्ट किया। पूरा गांव खुशी से नाच रहा था कि उसके पगला बाबा पर फिल्‍म बन रही है और पूरा गांव हमारी यूनिट का हिस्‍सा है। दशरथ मांझी के बेटे के साथ साथ गांव वाले भी इस फिल्‍म का हिस्‍सा हैं। मुहूरत तक दशरथ मांझी के बेटे से कराया गया और पिछले दिनों हम मांझी की पुण्‍यतिथ्ीि पर गहलौर भी गए थे।
फिल्‍म की सफलता में कोई शक नहंी है लकिन क्‍या आपने सोचा है कि आप गांव के विकास के लिए कुछ आर्थिक मदद करेंगे- अरे शूटिंग के दौरान पूरा गांव हमारी टीम का हिस्‍सा था, हमने तो सोच लिया है कि फिल्‍म की कमाई का एक हिस्‍सा गांव के विकास के लिए देना है।
बिहार से जुड़ी ऐसी कुछ यादें जो हमेशा आपको गुदगुदाएंगी, शूटिंग के बाद सबसे ज्‍यादा क्‍या मिस किया- बिहार के लोग बहुत गर्मजोशी से स्‍वागत करते हैं, उनका प्‍यार बहुत ही निश्‍चल है। हमने हमारी टीम ने वहां खूब लिटटी चोखा खाया। गहलौर निवासियों ने हमें खूब प्‍यार दिया। पूरा गांव ही एक परिवार की तरह था। कई बार कुछ चीजें समझ नहीं आती थीं फिर हम सभी हंसते रहते थे।
 एक बात समझ नहीं आई मांझी के किरदार के लिए नवाज को ही क्‍यों चुना इस सवाल के जवाब में केतन बहुत संजीदगी से कहते हैं कि मैंने नवाज का काम देखा था। मैं जब भी मांझी के किरदार के लिए किसी और को सोचता तो मुझे सिर्फ नवाज और उसकी आंखों में वो जुनून दिखता था जो दशरथ मांझी की आखों में उनकी फोटो में दिखता है। नवाज एक उम्दा अभिनेता हैं और मांझी के किरदार के लिए उनकी कदकाठी भी ठीक है. जिस पल मैं उनसे मिला उसी समय मुझे लगा कि इस किरदार के लिए वह एकदम सही रहेंगे। यहां तक कि छोटे से किरदार में भी वह एकदम उभर कर आते हैं। मांझी एक मजबूत भूमिका थी और इसके लिए उन्होंने बहुत मेहनत की है और सच बताउं उनका काम देखकर मैं विश्‍वास ही नहीं कर पा रहा था सबकुछ अविश्वसनीय है।  उनकी आंखों की गहराई को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन फिल्‍म में  राधिका का किरदार और पहनावा बहुत पसंद नहीं किया गया-

राधिका का चयन मैंने 100 लड़कियों को देखने के बाद किया था। राधिका में मुझे वो नमक दिखाई दिया जो बिहार की लड़कियों में होता है। सांवली, सेंसुअस, सेंसिबिल लड़की है राधिका वैसी ही रही होगी फगुनिया भी। 

Friday 21 August 2015

आवाज उठाइए देर से ही सही सुनी जाएगी

शानदार जबरजस्‍त मेट्रो
आवाज उठाइए देर से ही सही सुनी जाएगी
पूजा मेहरोत्रा
बहुत खुश हूं। खुद को दशरथ मांझी से कम नहीं समझ रही हूं। ठीक है मैने कोई पहाड़ नहीं खोदा, कोई रास्‍ता नहीं बनाया। बहुत मेहनत का काम नहीं किया। लेकिन यह भी सच है कि मैंने जो किया उससे रात में मेट्रो में सफर करने वाली महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस कर रही होंगी। जिस तरह से रात में महिलाओं की आरक्षित कोच अनारक्षित में तब्‍दील होती थी और महिलाएं चुप चाप ट्रेवेल करती थी अब सुकून से सफर तय कर रही होंगी। महिलाओं की सुरक्षा में बरती जा रही मेट्रो की लापरवाही की ओर मेट्रो प्रशासन का ध्‍यान आकर्षित किया। वैसे तो मैंने रात में मेट्रो की सिथति के बारे में अपने मीडिया के साथियों को भी बताया। क्‍योंकि इन दिनों मैं किसी डेली पत्रकारिता से नहीं जुड़ी हूं तो मेरी आवाज भी किसी ने नहीं सुनी और न ही महिला की सुरक्षा में मेट्रो की खामियों को ही उजागर करने की जहमत ही उठाई। मैंने अपनी बात बार बार ब्‍लॉग पर लिखी, सांध्‍य टाइम्‍स ने मेरी आवाज के साथ आवाज मिलाई। सीसीटीवी के भरोसे महिला को सुरक्षित मान रहे मेट्रो की कान पर शायद जूं रेंग गई। सुरक्षा टनाटन है।  
मैं धन्‍यवाद देना चाहती हूं निर्देशक, स्क्रिप्‍ट राइटर केतन मेहता, जबरजस्‍त अभिनेता और भले मानुष नवाजुददीन सिददीकी और राधिका आप्‍टे के साथ हमारी मेट्रो को। अब आप कहेंगे मांझी, द माउंटेन मैन बनाने के लिए केतन को बेहतरीन एक्टिंग के लिए नवाजुददीन का धन्‍यवाद देना तो बनता है। अब ये मांझी, नवाजुददीन और मेरे बीच में मेट्रो कहां से आ गई।  तो हुआ यूं कि मैंने रात नौ बजे कशमीरी गेट से डायमंड में फिल्‍म देखकर मेट्रो ली थी।
वैसे तो उस ब्‍लॉग लिखने के बाद मैं रात में ऑटो और टैक्‍सी ले रही थी। लेकिन इस महीने फिर से मैंने मेट्रो की सवारी की और इस महीने की ये चौथी या पांचवी बार देर रात मेट्रो में थी। मेट्रो में सुरक्षा के रंग ढंग मुझे बदले बदले लग रहे थे। पहले मुझे लगा 15 अगसत आने वाला है शायद इस वजह से चेकिंग हो रही है। लेकिन 15 अगस्‍त के बाद मैं तीन बार मेट्रो में देर रात चढ़ी और मैने देखा मानसरोवर और झिलमिल तक में भी सुरक्षा अधिकारी महिला कोच का जायजा ले रहे हैं। और कोच में यदि कोई ज्‍वाइंट पर भी खड़ा है तो उसे उतार लिया जा रहा है। अब मैं खुश हूं। अब मैं खुश क्‍यों हूं। तो खुश इसलिए हूं क्‍योंकि आप मेनस्‍ट्रीम में न रहते हुए यदि आवाज उठाते हैं तो सुने जाते हैं। दूसरी बात वे महिलाएं आरक्षित कोच में भी अपने बैठने के लिए स्‍थान ढूंढ रही होती थी उसमें पुरुष यात्रियों का ही कब्‍जा दिखाई देता था अब नहीं है। सुरक्षा चाक चौबंद है। तीसरी बात ये है कि मेट्रो जो सुरक्षा व्‍यवस्‍था सीसीटीवी के भरोसे छोड़ चुकी थी और घटना के बाद सीसीटीवी खंगाल कर सुबूत इक्‍टठा करने की बात करती जरा सी सर्तकता से महिलाएं छेड़खानी से बच जाएंगी।

ये उन लोगों के लिए जो ये लेख पहली बार पढ़ेगें उनके लिए पुराना ब्‍लॉग का लिंक इसके साथ जोड़ दूंगी लेकिन संक्षेप में यहां बता देती हूं। हुआ यूं कि पिछले दिनों मैंने रात में मेट्रो की बेरूखी, महिलाओं के डिब्‍बों में पुरुष यात्रियों के कब्‍जे और बार बार सुरक्षा अधिकारियों को फोन करने के बाद उनके द्वारा देर से कदम उठाए जाने पर ब्‍लॉग पर, फेसबुक पर अभ्यिान चलाया था। मेरे उस अभियान में आप सभी साथियों ने खूब साथ दिया था। टाइम्‍स ग्रुप के सांध्‍य टाइम्‍स ने मेरी आवाज के साथ आवाज बुलंद की थी। कल जब बदला बदला रूप देखा तो मेट्रो को धन्‍यवाद बनता है।
पुराना ब्‍लॉग है ये भी पढिए http://pforpooja.blogspot.in/2015/06/blog-post_26.html

Sunday 16 August 2015

हम असंवेदनशीलता की हद तक असंवेदनशील हो रहे हैं

अलगप्रकार के सेल्‍फिशनेस से ग्रसित नजर आने लगे हैं
बुजुर्गों, महिलाओं और शारीरिक रूप से असक्षमलोगों के प्रति समाज हमेशा से ही अलग नजरिया रखता रहा है। लेकिन अब ये नजरिया असंवेदनशीलता की हद को भी पार कर गया है।
कोई देखने में असक्षम व्‍यक्ति, विकलांग व्‍यक्ति बस में कैसे चढेगा और बस में चढ़ जाएगा तो उसे सीट मिलेगी भी या नहीं और अगर सीट मिल जाएगी तो वह गंतव्‍य तक ठीक से उतर पाएगा कि नहीं----जवाब है ‘शायद’।
 कोई गर्भवति महिला अगर मेट्रो में चढ़ती है तो महिलाओं की सीट पर बैठी महिला भी उसके लिए खड़ी होगी, महिलाओं के कोच में यदि चार साल का सोता हुआ कंधे से लगा बच्‍चा लेकर कोई महिला चढ़ती है तो कितनी युवा बच्चियां अपनी बातें बीच में रोक कर उसे सीट देती हैं**** जवाब - शायद ही कोई, शायद एक भी नहीं।
यानी हम असंवेदनशीलता की हद तक असंवेदनशील हो चुके हैं।
पिछले दिनों मेट्रो में कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जिसे देखकर मन व्‍याकुल हो उठा। ये बात अलग है कि मेरे पैरेंट्स जब भी दिल्‍ली में होते हैं मैं इन सब जिल्‍लतों से बचने के लिए उन्‍हें ‘कैब’ से ही रिश्‍तेदारों के यहां ले जाती हूं। लेकिन हर कोई कैब्‍ एफोर्ड नहीं कर सकता है। जहांगीर पुरी से हुडासिटी सेंटर का रूट था, अमूमन मेट्रो खचाखच भरी होती है लेकिन उस दिन पीक टाइम की तुलना में थोड़ी खाली थी। मैंने कश्‍मीरी गेट से हुडा सिटी सेंटर वाली मेट्रो ली। एक महिला एक बैग के साथ करीब चार साल के बच्‍चे को सीने से लगाए खड़ी नजर आई। वो लथपथ थी, कभी भी गिर सकती थी कयोंकि ड्राइवर साहब बीच बीच में तेज आवाज के साथ मेट्रो में ब्रेक लगा रहे थे। मैंने चारों तरफ देखा कॉलेज और नई नई आफिस जाने वाली बच्चियों से पूरी मेट्रो की सीटे भरी हुई थी।
 मैंने पूछा आपने सीट के लिए किसी से क्‍यों नहीं कहा--- बोली बोला था दीदी।
 फिर---
बोली जी नजरअंदाज कर दिया सभी ने।
मैंने चारों तरफ देखा’*** सभी का कान हम दोनों की तरफ ही था, दो लड़कियों की आंखों से मेरी आंखें टकराई, कान में लीड लगी थी और वे मशगूल थी मोबाइल पर, दूसरी दो लड़कियां बात कर रही थीं। मैंने बच्‍चे वाली की ओर इशारा करते हुए सीट के लिए इशारा किया, दोनों ने नजर हटा ली। ऐसा ही दूसरी साइड की लगभग सभी जागरूक सी बच्चियों, महिलाओं ने किया।
बच्‍चे वाली महिला मुझे देख रही थी***बोली रहने दीजिए दीदी।
मैंने पूछा कहां जाना है आपको --- बोली गुडगांव।
मैं अवाक।
मेट्रो चावड़ी पहुंची और तेज ब्रेक की आवाज, महिला को बचाउं खुद संभलू कि सोते हुए बच्‍चे को बचाउं--हम दोनों किसी तरह से संभले और फिर मैं दूसरी साइड गई पूछा कहां तक जाएंगी आप ?
आपसे मतलब !
मैंने कहा - बिलकुल नहीं,
फिर!
जी वो बच्‍चे वाली महिला है उसे उधर किसी ने सीट नहीं दी अगर आप दे देंगी तो मेहरबानी होगी।
मेरे पैर में दर्द है/
लेकिन अगर वो गिर गई तो बच्‍चे को भी चोट आएगी और महिला को भी
आपको क्‍यों दर्द हो रहा है---
इंसानियत के नाते मैडम और सोचिए कल इस जगह आप मैं या फिर हमारे परिवार की कोई महिला भी हो सकती  है
--- खैर लड़की उठने को तैयार हो गई, किसी तरह मैं उसका सामान ले जाकर उसे उस सीट पर बिठाया। जबकि उन लड़कियों से जिनसे मेरी आंखें टकराई थी वे राजीव चौक पर ही उतरने की तैयारी कर रही थीं।
अब जब हम 21वीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं और विकासशील से विकसित राष्‍ट्र की तरफ अग्रसर हो रहे हैं ऐसे में युवा लड़की हो या लड़का वे अव्‍यवहारिक और अलगप्रकार के सेल्‍फिशनेस से ग्रसित नजर आने लगे हैं। अपनी परेशानी तो उन्‍हें परेशानी नजर आती है लेकिन उनकी वजह से जो दूसरों को परेशानी हो रही है उसपर वो नजर ही नहीं डालना चाहते हैं। अपने होंठों को गोल कर घुमाते हुए तिरछे खड़े होकर सेल्‍फी लेते हुए, ऊंची आवाज में बाते करते हुए। कान में मोबाइल की लीड लगाकर गाना सुनते हुए, किसी भी इंसान का मजाक बनाते हुए, दूसरों को गलत और खुद को सही बनाते हुए आराम से फैल कर रहना , खुद को अपने गलत में भी सही बताना और उस गलत को सही मानते हुए जीना उनकी आदत बन चुकी है। जो समाज और खासकर भारतीय समाज के लिए बेहद ही चिंतनीय है। चिंता तो तब और बढ़ जाती है जब गलत करने के बाद भी ये जोशीले नवयुवक दबंगों जैसा व्‍यवहार करते हैं। किसी भी घटना के घट जाने के एक आधे घंटे या एक आध साल बाद भी उस बात का बदला लेने को उतारू रहते हैं। युवा भूल गए है कि जिसे वे अपना हक मानकर वो इस तरह का व्‍यवहार कर रहे हैं वह उनकी मानसिक बीमारी को दर्शा रहा है। जब आप सच्‍चे और द़ढ होते हैं तो अपने साथ न केवल दूसरों के लिए हाथ बढ़ाकर और थोड़ा सा एडजस्‍ट होकर दूसरों को स्‍थान देते हैं बल्कि दूसरों की पीड़ा को समझते हैं, दूसरों को ध्‍यान से सुनते हैं, समझते हैं और सम्‍मान भी देते हैं।

हमारे विचारों की उग्रता हमारे व्यवहार में और कब हमारे जीवन का हिस्‍सा बन गई हमें पता ही नहीं चला। हमारा दीमाग वही सोचता और कर्म करता है जैसा हम अपने सामने होता हुआ देखते हैं। आए दिन छोटी छोटी बातों पर, रोड रेड, बीच बाजार, बीच गली में लड़की को छुड़ा घोंप देने की घटना हो या तेजाब फेंकने की, गाड़ी की जरा सी टक्कर पर खून खराबे जैसी घटना ही क्‍यों न हो ये हमारे उग्र, मानसिक रूप से बीमार और गुस्‍सैल होने के साथ साथ हमारे आत्‍मविश्‍वास के खत्‍म होने की परिचायक भी है। हमारी नई पीढ़ी में अलग प्रकार की सेल्फिशनेस नजर आने लगी है। संभलिए देर होने से पहले।

Sunday 9 August 2015

पैनिक अटैक पर करें अटैक


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अचानक पूरे शरीर में कंपकंपी होना, घुटन की हद तक सांस फूलने लगना, एक अनजाना डर, बेचैनी, सांस छोटी-छोटी लेकिन तेज-तेज आना, ऐसा महसूस होना कि हार्ट अटैक आ गया, अब कुछ नहीं बचा, ऐसा कुछ महसूस किया है आपने? यह पैनिक अटैक है। युवाओं और महिलाओं में इन दिनों खूब देखा जा रहा है। एक्सपर्ट्स से बात करके पूरी जानकारी दे रही हैं पूजा मेहरोत्रा : 
अनीशा के पास हर परेशानी का हल होता है। ऑफिस में अक्सर उसे आखिरी मौके पर भी कोई न कोई बड़ी जिम्मेदारी दे दी जाती लेकिन वह मुस्कुराते हुए बॉस की मुश्किलें आसान कर देती। इस बार भी आखिरी मौके पर उसे एक बड़े प्रॉजेक्ट की जिम्मेदारी दी गई। जिम्मेदारी देते वक्त बॉस ने कहा कि अगर यह प्रॉजेक्ट नहीं मिला तो हम डूब जाएंगे, ऑफिस बंद हो जाएगा, सैकड़ों लोग बेरोजगार हो जाएंगे, तुम इसे संभाल लो। अनीशा दबाव में आ गई और उसे अचानक पूरा ऑफिस घूमता हुआ लगा। हाथों में पसीना और वोमिटिंग की फीलिंग होने लगी। अनीशा बेहोश हो गई। उसे आनन-फानन में हॉस्पिटल ले जाया गया, घंटों की जांच के बाद पता चला कि अनीशा को पैनिक अटैक आया है।



पहचानें पैनिक अटैक को 


- अचानक किसी बात का डर हावी होने लगना - तनाव के साथ दिल की धड़कन का असामान्य गति से तेज होने लगना - पैरों का कांपना - सीने में दर्द और बेचैनी - वोमिटिंग और पेट खराब हो जाना - हार्ट बीट नॉर्मल न रहकर तेज हो जाना - जोर-जोर से दिल धड़कने लगना - छोटी-छोटी बातों पर तनाव होने लगना - ठंड के मौसम में भी गर्मी लगने लगना - अचानक पूरे शरीर में सिहरन होने लगना - बैलेंस खो देना या बेहोशी आ जाना 
अगर शरीर में इस तरह से असामान्य लक्षण दिखने लगें तो ऐसी स्थिति को पैनिक अटैक कहा जाता है। ये ऐसी परिस्थितियां हैं, जिनसे आप चाह कर भी भाग नहीं पाते। 


क्यों होता है यह 
वैसे तो पैनिक अटैक होने की कोई खास वजह नहीं होती लेकिन हां, ये एंग्जाइटी से जुड़ा हो सकता है। डायबीटीज, ब्लड प्रेशर, दिल के मरीज और अस्थमा के मरीजों के लिए इस तरह का अटैक 'वॉर्निंग सिग्नल' हो सकता है। ऐसी किसी भी परिस्थिति के लिए इन बीमारियों के मरीजों को हमेशा ही तैयार रहना चाहिए। 

- पैनिक अटैक कई वजहों से हो सकता है। कई मामलों में पैनिक डिस्ऑर्डर की वजह चिंता, निराशा, उदासीनता भी होती है। - अमेरिका के नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ की रिसर्च में पता चला है कि पैनिक अटैक एक तरह का 'एंग्जाइटी डिस्ऑर्डर' है। कई बार किसी तरह का डर और फोबिया भी अटैक का कारण बन सकता है। 


किसी गंभीर बीमारी का है लक्षण 

- पैनिक अटैक के लक्षण कई बार हार्ट अटैक की तरह होते हैं, जिनमें दिल जोर-जोर से धड़कने लगता है, पसीना आने लगता है, एकदम से सांस लेने में दिक्कत होने लगती है। - कई बार दिल के मरीज, डायबीटीज के मरीजों में शुगर लेवल कम होने की वजह से और किसी दवा के रिएक्शन, हॉर्मोन डिस्ऑर्डर, अस्थमा, धूल मिट्टी से या किसी चीज से एलर्जी और सांस लेने में किसी तरह की परेशानी भी पैनिक अटैक का कारण बनती है। - पैनिक अटैक की जांच जरूर कराएं क्योंकि इसके और हार्ट डिजीज के लक्षण एक जैसे होते हैं और दोनों की जांच ईसीजी से की जाती है इसलिए ऐसी किसी भी स्थिति में जांच जरूरी है। 

पैनिक अटैक और हार्ट अटैक में फर्क 

- पैनिक अटैक में इंसान का हाल हार्ट अटैक के जैसा ही हो जाता है लेकिन इसमें दर्द नहीं होता। न सीने में और न ही शरीर के किसी और अंग में। चूंकि दोनों में एड्रेनेलिन हॉर्मोन का स्राव होता है इसलिए कई बार इन्हें सही-सही पहचान कर पाना मुश्किल हो जाता है। - पैनिक अटैक अक्सर तभी होता है, जब आप किसी तरह की मानसिक या शारीरिक परेशानी में हों या जब किसी काम को लेकर कोई चिंता या डर हो। - जांच और इलाज के बाद उन्हें पता चल पाता है कि यह अचानक पैदा हुई समस्या है, जिसमें सांस लेने में दिक्कत, दिल की धड़कन बढ़ जाना और सीने में दर्द जैसी समस्या भी होती है, लेकिन इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए वरना इसके परिणाम घातक साबित हो सकते हैं। - पैनिक अटैक और एंजाइना के लक्षण काफी मिलते-जुलते होते हैं इसलिए इसे मेडिकल जांच और ईसीजी द्वारा ही पता किया जा सकता है कि यह महज एक पैनिक अटैक है या मरीज को हार्ट संबंधित कोई बीमारी है। कहीं ब्लड वेसल्स में कोर्इ ब्लॉकेज तो नहीं, क्योंकि एंजाइना पेन तभी होता है जब ब्लड सर्कुलेशन ठीक न हो और हार्ट में ब्लॉकेज हो। दोनों में ही पसीना आता है, घबराहट होती है। 

पैनिक अटैक और मिर्गी में फर्क 

- मिर्गी पैनिक अटैक से अलग होती है। यह काफी हद तक पैनिक अटैक जैसी ही होती है, लेकिन फिर भी मेडिकल साइंस इसे पैनिक अटैक नहीं मानता। - मिर्गी एक दिमागी बीमारी है, जिसमें इंसान को दौरा पड़ता है, वह हाथ-पैर पटकता है, बेहोश हो जाता है, कभी-कभी मरीज के मुंह से झाग भी निकलता है। - कभी-कभी जबर्दस्त तनाव की वजह से भी ऐसे लक्षण मरीजों में पाए जाते हैं लेकिन वह मिर्गी नहीं होती है।


किस वजह से आता है पैनिक अटैक 

- पैनिक अटैक की कोई खास वजह नहीं होती है। कभी-कभी तो यह तब भी होता है जब आप आरामदायक स्थिति में होते हैं या फिर सो रहे होते हैं। - इसका कनेक्शन जीवन में हो रहे बड़े बदलावों के दौरान भी देखा गया है, जैसे युवाओं में इसकी बहुत बड़ी वजह उनके जीवन में आई उथल-पुथल होती है। जैसे तलाक हो जाना, नौकरी छूटने का डर या नौकरी का छूट जाना, बहुत ज्यादा तनाव होना, किसी नजदीकी की मौत हो जाना या फिर प्रेग्नेंसी के दौरान। लंबे वक्त तक किसी बड़ी बीमारी की चपेट में रहने या ब्रेकअप होने के बाद भी कई बार पैनिक अटैक होता है। किसी महत्वपूर्ण डील और प्रॉजेक्ट के कैंसल और पूरा न हो पाने का डर भी पैनिक अटैक देता है। 

- जिंदगी में घटा कोई बुरा हादसा पैनिक अटैक की वजह हो सकता है। ट्रॉमा से गुजरे लोगों में भी पैनिक अटैक होने की आशंका बनी रहती है। - किसी-किसी को भीड़, लिफ्ट आदि के माहौल में भी पैनिक अटैक होता है और वे इसमें दोबारा जाने से बचने लगते हैं। - कई बार पैनिक अटैक की वजह मेडिकल कंडिशन भी होती है। अगर पैनिक अटैक ऐसी किसी वजह से हो रहा है तो डॉक्टर के पास जरूर जाएं। 




किसे होता है सबसे ज्यादा 
- अक्सर पैनिक अटैक युवा और मिडिल एज वालों में देखा गया है। जो लोग लगातार टेंशन में रहते हैं और ढेर सारी जिम्मेदारियों के बीच काम कर रहे होते हैं, उनमें भी होता है। - जॉब जाने के रिस्क में काम कर रहे लोगों को पैनिक अटैक पड़ते देखा गया है। - कॉम्पिटिशन में बैठने वाले स्टूडेंटस भी इस तरह के पैनिक अटैक की चपेट में आ जाते हैं। - बुजुर्गों में पैनिक अटैक होने की वजह हमेशा कोई न कोई बीमारी ही होती है। वह दिल की बीमारी भी हो सकती है और डायबीटीज, बीपी या अस्थमा भी। - कभी-कभी लिफ्ट में कोई हादसा हो जाना या किसी तरह के अपराध का शिकार हो जाना भी इसकी वजह है। भीड़-भाड में अनहोनी घटना की चपेट में आए लोग अक्सर इसके मरीज बन जाते हैं। - महिलाओं में पैनिक अटैक पुरुषों की तुलना में ज्यादा देखने को मिलते हैं। महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा दबाव में काम करती हैं। - महिलाएं जब तक बहुत ज्यादा बीमार न हो जाएं, अपनी हेल्थ को नजरअंदाज करती रहती हैं। लंबे वक्त तक तनाव में रहने की वजह भी उनमें पैनिक अटैक की आशंका बढ़ जाती है। 



ऐसे में हो जाएं सावधान 
- डायबीटीज के मरीज का शुगर लेवल अचानक गिर सकता है और घबराहट में वह पैनिक अटैक का शिकार हो जाता है। ऐसे लोगों को ज्यादा देर तक भूखा नहीं रहना चाहिए। डायबीटीज, ब्लड प्रेशर, दिल के मरीज, थायरॉयड और अस्थमा के मरीजों के लिए इस तरह का अटैक 'वॉर्निंग सिग्नल' भी हो सकता है। - बीपी के मरीजों का बीपी लो हो या हाई, दोनो ही कंडिशन में उन्हें सतर्क रहना चाहिए। - बीपी और हार्ट पेशंट्स का दिल जोर-जोर से धड़कने लगे, घुटन महसूस हो, हाथ पैर कांपने लगें, अचानक चक्कर आने लगें, तो उन्हें अलर्ट हो जाना चाहिए। - अस्थमा के मरीजों में पैनिक अटैक के दौरान सांस रुकने लगती है या रुकने का अहसास होता है। लगता है, अब नहीं बचेंगे। - आपके व्यवहार में पैनिक अटैक की वजह से बदलाव आने लगें, जैसे पहले जहां अटैक आया है, वहां जाने से डर लगने लगे। ऐसी किसी भी स्थिति में डॉक्टर से मिलकर कंसल्ट करना चाहिए। 


कभी भी हो सकता है पैनिक अटैक पैनिक अटैक होता तो सिर्फ कुछ मिनटों के लिए है पर इसका असर पूरे जीवन और लाइफस्टाइल पर पड़ता है। 

पैनिक अटैक कहीं भी, कभी भी आ सकता है। इंटरव्यू देते हुए सोते वक्त सड़क पर चलते हुए शॉपिंग करते हुए ड्राइव करते हुए घर में बैठे हुए दोस्तों के बीच 

पैनिक अटैक अचानक होता है और 10 मिनट में यह पीक पर पहुंच जाता है। अमूमन अटैक 20-30 मिनट का होता है। अटैक के बाद इसके होने का डर ही अगले पैनिक अटैक का कारण बनता है। अक्सर देखा गया है कि जहां भी पैनिक अटैक आता है, लोग वहां जाने से घबराने भी लगते हैं। 

जब साथी को पड़े पैनिक अटैक 
- इस अटैक के पीछे मन का डर है इसलिए जिसे अटैक पड़े, उसका हाथ पकड़कर उसे सांत्वना देने से राहत मिलती है। - जिसे अटैक पड़ा है, उसकी बातें सुनें, चाहे वह कुछ भी कह रहा हो। उसके बीच में कतई न बोलें और उसकी हां में हां मिलाएं। - अगर मरीज की हालत में 10 मिनट के भीतर सुधार होता न दिखे तो जल्द-से-जल्द हॉस्पिटल या डॉक्टर के पास जाएं। - अगर घर के आस-पास या फिर जहां भी मरीज है, वहां जनरल फिजिशन है तो वहां ले जाएं। - जिसे पैनिक अटैक आया है, अगर उसकी कोई मेडिकल हिस्ट्री नहीं है तो मरीज को खुली जगह पर लिटाएं और उसके कपड़े ढीले कर दें। 
जब पड़े पैनिक अटैक 
- खुद से सबकुछ ठीक हो जाने की बात करें, शांत बैठकर गहरी सांसें लें। ऐसा करने से शरीर व दिल की धड़कन सामान्य हो जाती है। - कुछ सेकंड्स के लिए अपनी सांस रोकें, अपने सिर को कभी दाएं, कभी बाएं हिलाएं। - ठंडा पानी पिएं। ओआरएस का घोल या नीबू पानी ले सकते हैं। इससे शरीर को ठंडक मिलेगी और शरीर नॉर्मल हो जाएगा। 

बदलें लाइफस्टाइल - ऑयली फूड, जंक फूड न खाएं। वक्त-बेवक्त खाने से बचें - मॉर्निंग वॉक को जीवन में शामिल करें। - योग करें, जिससे शरीर में ऊर्जा का संचार हो। - मेडिटेशन से भी फायदा होता है। 



एक्सपर्ट्स पैनल डॉ. अनूप मिश्रा, डायबीटीज स्पेशलिस्ट, फोर्टिस सी डॉक डॉ. के. के. अग्रवाल, हार्ट स्पेशलिस्ट डॉ. राजेश सागर, साइकायट्रिस्ट, एम्स डॉ अनिल बंसल, जनरल फिजिशन 

Tuesday 4 August 2015

जीवन चलती का नाम----यादों के झरोखे से

यादों के झरोखे से- सिरीज 1
जीवन चक्र में सुख दुख दोनों समाहित है। कोई न तो जिंदगी भर सुखी रहता है और न दुखी।  मुझे दिल्‍ली आए अब 18 साल हो चुके हैं। कई कई खटटी मी‍ठी यादें गाहे बगाहे मुझे झकझोरती रहती हैं। इन 18 वर्षों में मेरे साथ घटी कुछ कड़वी यादों को तो मैंने कंट्रोल ऑल डिलीट कर दिया है लेकिन  कुछ यादों को जिंदगी के सबक के रूप में गले से लगा रखा है। मीठी यादें तो जिंदगी है मेरी। क्‍योंकि उसमें मेरी दो बेस्‍ट फ्रेंड हैं जिनमें से एक सात समंदर पार है लेकिन कोई ऐसा दिन नहीं जब याद न करती हो---- दूसरी देश के किसी भी कोने में हो लेकिन रहती हमेशा साथ है।
नैन्‍सी और अनीशा तो जिंदगी है मेरी। लेकिन लेकिन लेकिन इनके बाद भी मैंने अपनी जिंदगी में दोस्‍त बहुत कमाए हैं। लोग पैसे कमाते हैं और मैंने दोस्‍त। ये वो दोस्‍त हैं जिन्‍होंने इन 18 साल की जिंदगी में जब जब जिंदगी रूपी इस समुद्र में सुनामी आई है, जब जब मैं डूबने लगी हूं उन्‍होंने मुझे एक हाथ से नहीं दोनों हाथों से संभाला है। कभी डूबती तो कभी तैरती जिंदगी में मददगार रहे हैं। दोस्‍ती मेरे लिए एक दिन नहीं बल्कि जिंदगी है। मैं अपने एक एक दोस्‍त की शुक्रगुजार हूं। रेडियो की दुनिया से लेकर अभी तक.....4 अगस्‍त 2015 की शाम ऐसी घटना घटी है जिसने मुझे एक बार फिर झकझोर दिया है। आज उन तमाम दोस्‍तों का शुक्रिया की मुसीबत की घड़ी में भागे नहीं बल्कि मुस्‍तैदी से साथ खड़े हैं और अपनी लाचारगी पर दुखी हो रहे हैं। बस उनसे ये कहना चाहती हूं--- जिंदगी इसी का नाम है--- समय है बदल जाएगा, शब्‍द के बाण जो दिल को छेद रहे हैं कोशिश कीजिए वे बाण आप न चलाएं किसी के लिए भी। सारे दुख भर जाते हैं लेकिन शब्‍दों के बाण जिनसे दिल छलनी हुआ हो उसे भरना मुश्किल होता है। व्‍यवहार मीठा रखिए, बाकी सुख दुख तो जिंदगी के चक्र हैं। दुख के बिना सुख का मजा नहीं और सुख के बिना दुख का मजा नहीं।
 कॉलेज में ही थी कि मेरी किसी क्‍लासमेट ने मेरा नाम बुलंद आवाज के लिए कॉलेज की नाटक मंडली में डाल दिया। नाटक मंडली से तो जैसे तैसे पीछा छुड़ाया लेकिन आवाज की चर्चा कॉलेज की म्‍यूजिक टीचर तक भी पहुंचा दी गई, फिर क्‍या था कॉलेज में कोई भी मौका हो बुला ली जाती। चूंकि आर्मी और पुलिस से बचपन से लगाव था तो एनसीसी भी ले ली और ‘नेशनल चप्‍पल चोर’ बन गई।
चूंकि हिस्‍ट्री होती है बेवफा रात पढ़ो सुबह सफा। तो पहले साल में ही रिजल्‍ट खराब। क्‍योंकि क्‍लास में तो होती ही नहीं थी कभी नाच गाना तो कभी नाटक मंडली तो कभी लेफट राइट।
ओह इससे पहले एक और महत्‍वपूर्ण और इंट्रेस्टिंग बात- कॉलेज में एडमिशन के दौरान आपका इंटरव्‍यू भी होता है। मुझे नहीं पता था। मैं निपट गांव से आई थी। मुझे कुछ भी नहीं पता था। भाई कॉलेज लेकर आया मेरिट लिस्‍ट में नाम था। कॉलेज की फीस जमा की गई और कहा गया उपर जाइए, वहां आपका इंटरव्‍यू होगा। मैं उपर नहीं गई भाई के पास गई। बड़े भाई ने किसी तरह समझा कर उपर भेजा। तीन मैडम बैठी थी दो के नाम याद हैं। अर्चना ओझा और मैडम मसीह। मैंने अपना पेपर उनके आगे किया।
मसीह ने एक नजर पेपर देखा और ओझा मैम की तरफ बढाते हुआ कहा- बिहार से आई हो-
मैंने कहा – जी,
वहां से क्‍यो आई हो
जी पढ़ाई करने,
क्‍या करोगी पढ के
जी पढ़ना है, अभी कुछ सोचा नहीं है,
अच्‍छा शादी में आसानी होगी, दिल्‍ली युनिर्विसटी में पढ़ी है,
मैं- पता नहीं,
तब तक ओझा मैंम मेरा एक एक पेपर बहुत ध्‍यान से देख चुकी थीं, मार्क्‍स देखकर प्रभावित भी दीख रही थीं,
मार्कशीट देखते हुए उनके एक्‍सप्रेशन ऐसी ही कुछ कह रहे थे
ओझा मैम ने सिर उपर करते हुए पूछा
पूजा साइंस और आर्टस में बहुत फर्क है, कैसे पढ़ोगी, वहां समझना है यहां रटना है-
मैंने मासूमियत से जवाब दिया जैसे सभी पढ़ते हैं, जैसे आप पढ़ी होंगी,
शायद उन्‍हें जवाब भी अच्‍छा लगा, मुस्‍कुराईं
अभी वो कुछ और पूछती की मसीह मैम ने पूछा -गांधी जी कौन थे
मैं उनके वाहियात सवालों से चिढ़ चुकी थी- मैंने कहा आपको नहीं पता कौन थे,
वो बोली मैं तो जानती हूं कौन थे, तुम बताओ
मैंने कहा जो आप जानती हैं वही मैं भी जानती हूं, बताने से उनका कुछ बदलेगा नहीं
 ओझा मैम अपनी हंसी दबा रही थीं....
मसीह का गुससा सातवें आसमान पर था, मेरे इस जवाब को उन्‍हेाने दिल से लगा लिया और मुझे तीन साल में मौका मिलते ही बार बार बेइज्‍जत किया, जब जब मैं उनसे टकरा जाती, अपनी चिनचिनाती आवाज में पूछतीं – पास हो गई क्‍या तुम
मैं घबरा जाती, गांव वाली जो ठहरी, मैं कहती -आपका आर्शीवाद है,
चिढ कर कहती मेरा नहीं -अर्चना ओझा का,
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अब वापस इंटरव्‍यू वाले दिन पर
इंटरव्‍यू में मसीह मैम और वो तीसरी मैम शायद एबरॉल थी मुझे फेल कर दिया- इसकी फीस वापस की जाए----
 मुझे कहा आपका एडमिशन कैंसिल कर दिया गया है, आपको गांधी जी के बारे में नहीं पता है और आप मुझसे ही सवाल कर रही हैं----
मैं तो तब तक नहीं समझी थी कि मेरा इंटरव्‍यू  किया क्‍यों जा रहा है, एडमिशन तो हो गया, फीस जमा हो चुकी है-
मैं मुह लटकाए दरवाजे से निकलने से पहले ओझा मैम की तरफ इशारा करते हुए कहा ये पेपर भी ले जाउं क्‍या, आसानी होगी
पता नहीं उन्‍हें मेरी आंखों में, मेरे हाव भाव में क्‍या दिख रहा था
वो बोली तुम नीचे जाओ पेपर वहां मिल जाएगा----मैं मुंडी हिलाती हुई निकलने लगी,
तो मसीह की कनकनाती आवाज कानो मे आई, ---इस दरवाजे से नहीं उस दरवाजे से,--- उफफ ये बिहारी---
शायद ओझा मैम बर्दाश्‍त नहीं कर पा रही थीं, मैं बाहर निकलकर जैसे ही पहले दरवाजे की तरफ पहुंची आवाज आई पूजा, मैं आगे बढ़ गई
 फिर आवाज आई ---पूजा मेहरोत्रा
मैं पीछे पलटी, ओझा मैम मुस्‍कुरा रही थीं----मुझे बोली निराश मत हो, तुम्‍ 15 तारीख को 10 बजे आना। यही क्‍लास होगी तुम्‍हारी।
मेरी आंखों में आसूं थे----

ये बातें मेरे आज के लिए जिम्‍मेदार हैं-क्‍यों ? वो अगली पोस्‍ट में