अलगप्रकार के सेल्फिशनेस
से ग्रसित नजर आने लगे हैं
बुजुर्गों, महिलाओं और
शारीरिक रूप से असक्षमलोगों के प्रति समाज हमेशा से ही अलग नजरिया रखता रहा है।
लेकिन अब ये नजरिया असंवेदनशीलता की हद को भी पार कर गया है।
कोई देखने में असक्षम व्यक्ति,
विकलांग व्यक्ति बस में कैसे चढेगा और बस में चढ़ जाएगा तो उसे सीट मिलेगी भी या
नहीं और अगर सीट मिल जाएगी तो वह गंतव्य तक ठीक से उतर पाएगा कि नहीं----जवाब है ‘शायद’।
कोई गर्भवति महिला अगर मेट्रो में चढ़ती है तो
महिलाओं की सीट पर बैठी महिला भी उसके लिए खड़ी होगी, महिलाओं के कोच में यदि चार
साल का सोता हुआ कंधे से लगा बच्चा लेकर कोई महिला चढ़ती है तो कितनी युवा
बच्चियां अपनी बातें बीच में रोक कर उसे सीट देती हैं**** जवाब - शायद ही कोई,
शायद एक भी नहीं।
यानी हम असंवेदनशीलता की हद
तक असंवेदनशील हो चुके हैं।
पिछले दिनों मेट्रो में कई
ऐसी घटनाएं सामने आईं जिसे देखकर मन व्याकुल हो उठा। ये बात अलग है कि मेरे
पैरेंट्स जब भी दिल्ली में होते हैं मैं इन सब जिल्लतों से बचने के लिए उन्हें
‘कैब’ से ही रिश्तेदारों के यहां ले जाती हूं। लेकिन हर कोई कैब् एफोर्ड नहीं कर
सकता है। जहांगीर पुरी से हुडासिटी सेंटर का रूट था, अमूमन मेट्रो खचाखच भरी होती
है लेकिन उस दिन पीक टाइम की तुलना में थोड़ी खाली थी। मैंने कश्मीरी गेट से हुडा
सिटी सेंटर वाली मेट्रो ली। एक महिला एक बैग के साथ करीब चार साल के बच्चे को
सीने से लगाए खड़ी नजर आई। वो लथपथ थी, कभी भी गिर सकती थी कयोंकि ड्राइवर साहब
बीच बीच में तेज आवाज के साथ मेट्रो में ब्रेक लगा रहे थे। मैंने चारों तरफ देखा
कॉलेज और नई नई आफिस जाने वाली बच्चियों से पूरी मेट्रो की सीटे भरी हुई थी।
मैंने पूछा आपने सीट के लिए किसी से क्यों नहीं
कहा--- बोली बोला था दीदी।
फिर---
बोली जी नजरअंदाज कर दिया
सभी ने।
मैंने चारों तरफ देखा’***
सभी का कान हम दोनों की तरफ ही था, दो लड़कियों की आंखों से मेरी आंखें टकराई, कान
में लीड लगी थी और वे मशगूल थी मोबाइल पर, दूसरी दो लड़कियां बात कर रही थीं।
मैंने बच्चे वाली की ओर इशारा करते हुए सीट के लिए इशारा किया, दोनों ने नजर हटा
ली। ऐसा ही दूसरी साइड की लगभग सभी जागरूक सी बच्चियों, महिलाओं ने किया।
बच्चे वाली महिला मुझे देख
रही थी***बोली रहने दीजिए दीदी।
मैंने पूछा कहां जाना है
आपको --- बोली गुडगांव।
मैं अवाक।
मेट्रो चावड़ी पहुंची और
तेज ब्रेक की आवाज, महिला को बचाउं खुद संभलू कि सोते हुए बच्चे को बचाउं--हम
दोनों किसी तरह से संभले और फिर मैं दूसरी साइड गई पूछा कहां तक जाएंगी आप ?
आपसे मतलब !
मैंने कहा - बिलकुल नहीं,
फिर!
जी वो बच्चे वाली महिला है
उसे उधर किसी ने सीट नहीं दी अगर आप दे देंगी तो मेहरबानी होगी।
मेरे पैर में दर्द है/
लेकिन अगर वो गिर गई तो बच्चे
को भी चोट आएगी और महिला को भी
आपको क्यों दर्द हो रहा है---
इंसानियत के नाते मैडम और
सोचिए कल इस जगह आप मैं या फिर हमारे परिवार की कोई महिला भी हो सकती है
--- खैर लड़की उठने को
तैयार हो गई, किसी तरह मैं उसका सामान ले जाकर उसे उस सीट पर बिठाया। जबकि उन
लड़कियों से जिनसे मेरी आंखें टकराई थी वे राजीव चौक पर ही उतरने की तैयारी कर रही
थीं।
अब जब हम 21वीं सदी में
प्रवेश कर चुके हैं और विकासशील से विकसित राष्ट्र की तरफ अग्रसर हो रहे हैं ऐसे
में युवा लड़की हो या लड़का वे अव्यवहारिक और अलगप्रकार के सेल्फिशनेस से ग्रसित
नजर आने लगे हैं। अपनी परेशानी तो उन्हें परेशानी नजर आती है लेकिन उनकी वजह से
जो दूसरों को परेशानी हो रही है उसपर वो नजर ही नहीं डालना चाहते हैं। अपने होंठों
को गोल कर घुमाते हुए तिरछे खड़े होकर सेल्फी लेते हुए, ऊंची आवाज में बाते करते
हुए। कान में मोबाइल की लीड लगाकर गाना सुनते हुए, किसी भी इंसान का मजाक बनाते
हुए, दूसरों को गलत और खुद को सही बनाते हुए आराम से फैल कर रहना , खुद को अपने
गलत में भी सही बताना और उस गलत को सही मानते हुए जीना उनकी आदत बन चुकी है। जो
समाज और खासकर भारतीय समाज के लिए बेहद ही चिंतनीय है। चिंता तो तब और बढ़ जाती है
जब गलत करने के बाद भी ये जोशीले नवयुवक दबंगों जैसा व्यवहार करते हैं। किसी भी
घटना के घट जाने के एक आधे घंटे या एक आध साल बाद भी उस बात का बदला लेने को उतारू
रहते हैं। युवा भूल गए है कि जिसे वे अपना हक मानकर वो इस तरह का व्यवहार कर रहे
हैं वह उनकी मानसिक बीमारी को दर्शा रहा है। जब आप सच्चे और द़ढ होते हैं तो अपने
साथ न केवल दूसरों के लिए हाथ बढ़ाकर और थोड़ा सा एडजस्ट होकर दूसरों को स्थान
देते हैं बल्कि दूसरों की पीड़ा को समझते हैं, दूसरों को ध्यान से सुनते हैं,
समझते हैं और सम्मान भी देते हैं।
हमारे विचारों की उग्रता
हमारे व्यवहार में और कब हमारे जीवन का हिस्सा बन गई हमें पता ही नहीं चला। हमारा
दीमाग वही सोचता और कर्म करता है जैसा हम अपने सामने होता हुआ देखते हैं। आए दिन
छोटी छोटी बातों पर, रोड रेड, बीच बाजार, बीच गली में लड़की को छुड़ा घोंप देने की
घटना हो या तेजाब फेंकने की, गाड़ी की जरा सी टक्कर पर खून खराबे जैसी घटना ही क्यों
न हो ये हमारे उग्र, मानसिक रूप से बीमार और गुस्सैल होने के साथ साथ हमारे आत्मविश्वास
के खत्म होने की परिचायक भी है। हमारी नई पीढ़ी में अलग प्रकार की सेल्फिशनेस नजर
आने लगी है। संभलिए देर होने से पहले।
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