निर्भया गैंगरेप के मामले में देश की सर्वोच्च न्यायालय ने इंसाफ कर दिया है।
चारों दोषियों को फांसी की सज़ा बरकरार रखी गई है। जैसे ही सुप्रीम कोर्ट से सज़ा
बरकारर रखने की खबर आई देश में खुशी की लहर दौड़ गई। सभी ने एक ही बात कही, देर है
अंधेर नहीं..इंसाफ मिल गया निर्भया को.. पिछले चार वर्षों में निर्भया केस से
जुड़ी शायद ही ऐसी कोई सुनवाई रही हो जब देशवासियों ने उसे खुद से जोड़ कर न देखा
हो। निर्भया के साथ १६ दिसंबर २०१२ की रात हुई दरिंदगी ने देश को शर्मशार कर दिया
था। जिसने भी निर्भया के साथ हुई उस वहशियाना हरकत के बारे में सुना वह कांप गया,
उसकी अंतरआत्मा कांप गई..आंख डबडबा गई, क्या महिला, क्या पुरुष और क्या बच्चे सभी
घर से निर्भया के लिए इंसाफ मांगने निकल पड़े थे। देश महिला सुरक्षा को लेकर एकजुट
दिख रहा था। देशवासियों की एकजुटता ने संसद को हिला कर रख दिया था। निर्भया के
मामले को भले ही पांच साल होने को हैं..लेकिन अगर पीछे पलट कर देखें तो दिखेगा कि कुछ
भी नहीं बदला है। महिलाएं और असुरक्षित हुआ हैं। रेप और छेड़छाड़के मामले बढ़ गए
हैं। देश जितना महिला सुरक्षाको लेकर एकजुट दिख रहा था वह महज़ दिखावा भर था। बच्चियां
आज ज्यादा असुरक्षित हैं..रेप के मामलों में बेतहाशा वृद्धि हुई है और हमारी
मानसिकता संकीर्ण हुई है।
बहरहाल, निर्भया गैंगरेप को रेयर ऑफ रेयरेस्ट केस मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय
ने समाज की उम्मीदों के मुताबिक ही फांसी की सज़ा को बरकरार रखा है। सर्वोच्च
न्यायालय के आदेश देश के लिए नज़ीर पेश करते हैं..इस मामले में न्यायपालिका ने ऐसा
ही किया और लोअर कोर्टके आदेश को बरकरार रखते हुए फांसी की सज़ा को बरकरार रखा। जब
निर्भया के साथ दरिंदगी हुई थी तब सरकार ने कई अहम फैसले लिए थे। उसी का नतीज़ा था
फास्ट ट्रैक कोर्ट। यह विडंबना ही है कि मामले को पांच साल होने को हैं, सजा
बरकरार रखी गई है लेकिन सजा हुई नही है। साकेत फास्ट ट्रैक कोर्ट ने नौ महीने के
अदंर गैंगरेप के चारों दोषियों अक्षय,
पवन, मुकेश और विनय को फांसी की सजा सुनाई थी। केस दिल्ली हाई कोर्ट गया और
वहां भी फांसी की सज़ा को बरकरार रखा गया और मुहर लगा दी थी। फिर मामला देश की
सर्वोच्च अदालत पहुंचा, दोषियों की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा पर रोक
लगा दी लेकिन मामले की गंभीरता और इंसाफ की मांग करती निर्भया की आत्मा ने मामले
को कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट में ही तीन जजों की बेंच के पास
गया। करीब एक साल तक सुनवाई चली। निर्भया के साथ दरिंदगी छह लोगों ने की थी। उसमें
एक नाबालिग भी था। पुलिसिया जांच में पता चला
था कि निर्भया के साथ सबसे ज्यादा दरिंदगी नाबालिग ने की थी..लेकिन नाबालिग होने
के कारण वह फांसी से बच निकला..उसे सज़ा भी महज़ तीन महीने की हुई थी. इस मामले
में नाबालिग अपराधी की उम्र घटा कर १६ साल कर दी. वहीं छठे आरोपी रामकुमार ने
तिहाड़ में फांसी लगा कर खुद को सज़ा दे ली थी। चारों अभियुक्तों को फांसी की सजा
बरकरार रखे जाने पर भी समाज दो भागों में बंटा दिख रहा है। और एक सवाल कर रहा है
कि क्या इन चारों को फांसी दिए जाने के बाद देश में रेप के मामले कम हो जाएंगे? क्या
बच्चियां इन्हें फांसी दिए जाने के बाद सुरक्षित हो जाएगी? बहस लंबे समय से चली आ
रही है..और वैसे ही चलती रहेगी..लेकिन समाज में अगर कानून के प्रति डर उत्पन्न
करना है तो न्यायिक प्रक्रिया को तेज करना होगा। त्वरित कार्रवाई से चीजों में
जरूर बदलाव होता दिखता है। और इसका साक्षात उदाहरण है २०१० में हुए कॉमन वेल्थ
गेम्स। पूरी दिल्ली गेम्स के बाद भी संस्कारी बनी रही थी। क्योंकि तब सज़ा और
पुलिस दोनों सड़क पर मुस्तैद थे। प्रशासन चुस्त था।
बहरहाल, सुरक्षित मानी जानी वाली दक्षिणी
दिल्ली में निर्भया के साथ जिस तरह से दरिंदगी हुई, उसने देर रात काम करने वाली
महिलाओं को हिला कर रख दिया था। तब कामकाजी महिलाओं की सुरक्षाको लेकर कई नियम
बनाए गए थे, कानून में बदलाव किए थे, राजनीतिक पार्टियों ने बड़े बड़े दावे किए
थे। देर रात ड्यूटी करने वाली महिलाएं को
कंपनियां गार्ड की सुरक्षा में घर तक पहुंचाए जाने की बात की गई थी। यह आदेश
महिलाओं के लिए उल्टा साबित हुआ। महिलाओं को कंपनियों ने काम ही देना बंद कर दिया।
मीडिया जो सबसे ज्यादा कंसर्न दिखाता है वह भी इससे अछूता नहीं है।
निर्भया के साथ हुई दरिंदगी देशभर की महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान का मुद्दा
बना था। जिस तरह से युवा लड़कों ने आंदोलन में हिस्सा बने थे लगा था महिलाओं के
प्रति सोच में बदलाव होगा. लेकिन अफसोस हालात सुधरने की जगह और बदतर हुए हैं। पिछले
पांच साल में महिलाओं में असुरक्षा और बढ़ी
है, उनके साथ होने वाले हादसे और बढ़े
हैं। प्रशासन कान में तेल डाल कर बैठ चुका है और जिनके बदलने की उम्मीद थी
उन्होंने भी बुरी तरह से निराश किया है। लेकिन इस घटना के बाद महिलाएं और बेटियां मुखर
हुईं हैं। जिस छेड़छाड़ को नियति मानकर वो चुप रह जाती थीं अब हंगामा होता है। इसका
अंदाजा नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से लगाया जा सकता है।
बलात्कार के मामलों में पिछले पांच सालों में इज़ाफा दर्ज है। बदले माहौल ने महिलाओं को पुलिस में शिकायत करने
का हौसला तो दिया, लेकिन दुख इस बात का है
कि बलात्कार के मामले कम नहीं हुए हैं। देश की राजधानी में ही पिछले पांच वर्षों में
महिलाओं की छेड़छाड़ से लेकर बलात्कार के कई बड़े हादसे हुए। वहशियों ने छोटी
बच्चियों को भी शिकार बनाया। आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में साल 2012 में बलात्कार के 706 मामले सामने आए थे, जबकि 2016 में 2199 मामले दर्ज़ हुए हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट पर अगर नजर डालें तो दिल्ली में मुंबई के मुकाबले तीन तीन गुना ज़्यादा रेप होते
हैं। 2015- 2016 के अक्टूबर तक
दिल्ली में 3973 लड़कियों का रेप हुआ।
मतलब हर चार घंटे में एक बलात्कार। अगर छेड़छाड़ के आंकड़ें पर नज़र डालें तो कान
से धुआं निकलने लग जाएगा..रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली में अकेले हर दो घंटे में
कहीं न कहीं किसी लड़की को मॉलेस्ट किया जाता है।
जिस देश में नारी को पूजने की परंपरा
रही है वहां क्यों वे महज़ मनोरंजन और उपभोग की वस्तु बन गईं? क्यों सिर्फ निर्भया
के लिए तो देश एकत्रित होता है? लेकिन घर में महिला को हर दिन निर्भया के दौर से
गुजरना पड़ रहा है। इन सबकी सिर्फ बस एक वजह नज़र आती है वह है मानसिकता। जब देश
निर्भया के लिए एकजुट दिखाई दे रहा था तब भी मानसिकता बदली हुई नहीं थी। मां बहन
की गालियां आज भी हर किसी की जुबान का हिस्सा हैं। यही मानसिकता महिलाओं के साथ दोयम
दर्जे का व्यवहार कराती है। और इस मानसिकता की जड़ में है हमारा घर और पुरुष
प्रधानता। पहले बच्चियों को, महिलाओं को घर-परिवार में उपेक्षित और प्रताड़ित किया
जाता है और जब वह उन बंधनों, प्रताड़नाओं को तोड़ते हुए बाहर निकलती हैं तो छेड़छाड़
और दुष्कर्म का शिकार बनती हैं। कानून की चाल इतनी सुस्त होती है कि गर्म लोहे पर
चोट सी असर नहीं कर पाती। रेयर ऑफ रेयरेस्ट मामले में भी सजा देने में पांच साल
लगते हैं तो कठोर कानून और कोर्ट का कड़ा फैसला भी अपना असर नहीं दिखा पाता हैं। अब
समय आ गया है जब घर से मानसिकता को बदला जाए। जब तक नेता लड़को से गलती हो जाती है
जैसे भाषण देते रहेंगे तब तक समाज में सुधार संभव नहीं है। मानसिकता में बदलाव की
शुरूआत बच्चों के माध्यम से और शिक्षा-दीक्षा में सुधार करके किया जा सकता है।
बच्चों को घर से ही स्त्री का सम्मान करना सिखाया जाना चाहिए और इस क्रम में
स्कूली पाठ्यक्रमों में बदलाव करना पड़े तो करना चाहिए।
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