Tuesday 4 October 2016

अभियान... अब तो ऐश्वर्या जैसी नहीं एंजेलिना लड़की चाहिए!

पूजा मेहरोत्रा
हीनता से ग्रस्त भारतीयों के एक वर्ग में गोरी चमड़ी के प्रति आकर्षण वैसे तो बहुत पहले से रहा है लेकिन अब यह नवजातों के रंग-रूप तक पहुंच चुका है। पहले जब महिला गर्भवती होती थी तो परिवार चाहता था कि बच्चा स्वस्थ हो लेकिन आज धनाढ्य परिवार यह चाहने लगा है कि वह सबसे गोरा हो। मां-बाप तक अपनी भावी संतान के रंग को लेकर इस हद तक परेशान रहते हैं कि वे उसके जन्म से पहले ही सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि वह किसी भी कीमत पर गोरी होनी चाहिए। इस चाहत को आजकल फलीभूत कर रही है ‘आइवीएफ तकनीक’। अभी तक इस तकनीक का उपयोग बेऔलाद दंपती बच्चे की चाहत को पूरा करने के लिए करते थे लेकिन अब इसका दुरुपयोग हो रहा है। यदि कोई महिला प्राकृतिक रूप से मां बनने में अक्षम है और वह आइवीएफ तकनीक से मां बनने को तैयार है तो वह ऐसे ‘पुरुष या स्त्री दानदाता’ की मांग कर रही है जिससे उसके परिवार का डीएनए तक बदल जाए और उनका बच्चा सबसे गोरा हो। गोरे बच्चे की मांग भी कुछ वैसी ही है जैसे विवाह के विज्ञापनों में लड़के को डॉक्टर, इंजीनियर और आइएएस बताने वाले गोरी लड़की की मांग करते हुए लिखते हैं: ‘लड़का डॉक्टर है, बहू गोरी चाहिए।’ लड़का शक्ल-सूरत में कैसा क्यों न हो, परिवार वाले गोरी-चिट्टी लड़की ही चाहते हैं। बीच के दशकों में ऐसा लगा था कि वर्ण के प्रति लोगों का झुकाव कुछ बदला है लेकिन सच्चाई यह सामने आ रही है कि कुछ नहीं बदला है बल्कि गोरे रंग की मांग में इधर तेजी ही आई है।
सीन एक : गुड़गांव में आइवीएफ विशेषज्ञ डॉ संदीप तलवार का बोन हॉल क्लीनिक। कई देशी-विदेशी निःसंतान जोड़े एक बच्चा पाने की चाह में इलाज के लिए बैठे हैं। अधेड़ हो रहे एक पुरुष में डॉक्टर शुक्राणु की कमी बताती हैं, तो उसकी पत्नी डॉक्टर से कहती है कि मुझे ऐसे पुरुष का शुक्राणु निषेचित कीजिए जिससे मेरा बच्चा गोरी चमड़ी वाला हो और छह फुट से ज्यादा लंबा हो।
सीन दो : दिल्ली के बंगाली मार्केट से सटे सबसे पुराने डॉ अनूप गुप्ता के एक आइवीएफ सेंटर में भी कई निःसंतान जोड़े आंखों में अपनी संतान का सपना लिए डॉक्टर के इंतजार में बैठे हैं। यहां एक गेहुंए रंग की महिला को बताया जाता है कि उन्हें अंडाणु की जरूरत है। वह महिला जिसका पूरा परिवार गोरा है, अपने आपको सांवली होने की वजह से खूबसूरत नहीं मानती है। वह डॉक्टर से कहती है कि किसी ऐसी महिला का अंडाणु निषेचित करिए, जो खूबसूरत हो, उसकी आंखें नीली हों तथा रंग गोरा हो। सीन तीन : बंगलूरू के डॉ. मनीष बंकर का क्लीनिक। दक्षिण भारतीय जोड़ा एक ऐसी बेटी की चाह में आया है, जो हॉलिवुड अभिनेत्री एंजेलिना जॉली जैसी खूबसूरत हो और अगर यह संभव न हो तो कम से कम वह ऐश्वर्य राय, प्रियंका चोपड़ा और सुष्मिता सेन जैसी सुंदर तो होनी ही चाहिए।
इन जोड़ों को ‘डिजाइनर बेबी’ के बारे में जानकारी पिछले वर्ष की हिट फिल्म ‘विक्की डोनर’ से मिली। इसके एक सीन में दिल्ली के फर्टिलिटी क्लीनिक और आइवीएफ सेंटर पर संतान की चाह रखने वाले जोड़े को सचिन तेंदुलकर, हिृतिक रौशन और विख्यात फुटबॉलर डेविक बेखम के शुक्राणु की मांग करते हुए दिखाया गया था। शायद इस फिल्म का ही असर है कि निःसंतान दंपती ही नहीं, एक-दो बच्चों के मां-बाप भी खूबसूरत और गोरे बच्चे की चाह में इन क्लीनिकों के चक्कर लगाते नजर आ रहे हैं। जिस दक्षिण भारतीय दंपती की बात ऊपर की गई है, उसे पहले से एक बेटा है मगर बेटी की चाहत है और वह भी एंजेलिना जॉली जैसी!
इन दंपतियों की मांग यहीं खत्म नहीं होती है। कुछ अभिभावक सुंदर बच्चे के साथ-साथ आइएएस, आइपीएस, आइआइटी से पढ़े इंजीनियर, वैज्ञानिक या फिर डॉक्टर पुरुष के शुक्राणु और महिला के अंडाणु की मांग करने से भी नहीं हिचकिचाते हैं। ये जोड़े डॉक्टर से लेकर डोनर तक को भारी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं। डॉ. संदीप तलवार बताती हैं कि ‘गोरे, नीली आांखों वाले बच्चों की सबसे ज्यादा मांग अमीरों में है, खासकर उन अमीरों की जिनका रंग गेहुंआ है।’ मुंबई की आइवीएफ विशेषज्ञ डॉक्टर अंजलि मालपाणी कहती हैं कि ‘गोरे और नीली आंखों वाले बच्चे की चाह रखनेवालों को कम से कम एक से डेढ़ लाख रुपये अधिक खर्च करने पड़ते हैं। कॉकेशियन इंसानों में ऐसी प्रजाति है जिनका रंगा गोरा, बालों का रंग सुनहरा और आंखें नीली और भूरी होती हैं। ऐसे डोनर को कई कागजी कार्रवाइयों से गुजरना होता है। ऐसे में विदेशी डोनर अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य और दिखने के अनुरूप रुपयों की मांग करते हैं और यह मांग १० हजार से एक लाख रु. तक हो सकती है। भारत में ऐसे डोनर कश्मीरी होते हैं। वे बहुत ही कम कीमत पर अपने शुक्राणु दान कर देते हैं।’ आइवीएफ विशेषज्ञ डॉ. अनूप गुप्ता १९९४ से आइवीएफ तकनीक द्वारा कई हजार निःसंतानों को संतान सुख दे चुके हैं। वे बताते हैं कि ‘दुर्भाग्य से भारत में आज भी सांवला होना लड़कियों के लिए एक अभिशाप माना जाता है। ऐसे में मां-बाप को जब हम अंडाणु या फिर शुक्राणु डोनेशन के रूप में लेने की बात करते हैं तो वे अपनी मांगों की लिस्ट हमारे सामने रख देते हैं। उनकी मानसिकता यह होती है कि किसी तरह उनके परिवार में सांवले होने का क्रम टूटे। वे कहते हैं कि ‘हर वर्ग में गोरे बच्चों की चाह बढ़ रही है और जब विकल्प मौजूद है तो सभी इसका फायदा उठा लेना भी चाहते हैं।’
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंक़ड़ों के अनुसार, भारत में करीब एक करोड़ ९० लाख दंपती निःसंतान हैं और यह संख्या बराबर बढ़ रही है। ये वे दंपती हैं, जो किसी-न-किसी कारणवश मां-बाप बनने के सुख से वंचित हैं। कंसल्टेंसी फर्म केपीएमजी की लाइफ साइंसेज शाखा के अनुसार, भारत में ‘फर्टिलिटी इंडस्ट्री’ में अभी तक लगभग ७५० करोड़ रुपये तक का निवेश हो गया है, जिसमें सात फीसदी कारोबार किराये की कोख से संबंधित है और सबसे बड़ा भाग ७० फीसदी आइवीएफ से संबंधित है। वहीं, इंट्रा-यूटरिन इनसेमीनेशन (आइयूआइ) तकनीक द्वारा संतान सुख पाने वालों का प्रतिशत 22 है। इस तकनीक में शुक्राणु सूई से सीधे गर्भाशय में ऐसे डाला जाता है कि निषेचन की क्रिया 100 फीसदी हो।

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