मैं हूं पूजा मेहरोत्रा
पता नहीं क्यूं अक्सर ही मुझे ‘झांसी की रानी’
कहा जाता रहा है। बचपन से ही। मैं अक्सर सोचती थी कि मैं ऐसा क्या कर देती हूं
कि मुझे झांसी की रानी कहा जाता है। ये अच्छी बात है या खराब। चूंकि मेरी हर बात
पर मुझे ‘झांसी की रानी’ कहा जाता जो मेरी समझ से परे होता चला गया। मैंने इसे
नजरअंदाज करना ही बेहतर समझा। लेकिन कभी कभी यह बातें मुझें झकझोर देती मैं खुद से
सवाल करती। क्या मैं झगड़ालू हूं? क्या मेरी बेबाकी की वजह से मुझे ये नाम दिया जाता है? मैं डरपोक कभी नहीं थी, बचपन
से ही मैं अपनी किसी तरह की शिकायत घर लेकर नहीं गई। चाहें रास्ते में किसी लड़के
द्वारा अपशब्द कहा जाना हो या मेरा रास्ता घेरा जाना। टीचर तक से बहस कर लेती थी। सारी बातें रास्ते में ही निपटा लेती। मैं
घर पर क्या शिकायत करती मेरी ही शिकायत घर तक पहुंच जाती थी। ये बात अलग है कि
पापा शिकायतों पर ध्यान नहीं देते और शिकायत लाने वाले से चार सवाल और पूछ
लेते।
बाद में मुझसे पूछा जाता क्या
हुआ था। मैं बता देती वो लड़का बार बार अपनी मोटरबाइक से आगे पीछे कर रहा था तो बस
लात मार दिया मैनें। वो लड़का उस लड़की को रास्ते में आगे नहीं जाने दे रहा था, मैं वहां खड़ी हो गई, पीट दिया मैने उसे। पापा मां की ओर देखते और मां पापा की ओर। दोनों समझ गए थे
शायद इसके लिए डरने की जरूरत नहीं। वैसे मां पापा ने जितना प्यार किया है उतने ही
सोंटे भी लगाए हैं। बचपन में। जब भी कोई
ट़यूशन लगाया जाता मैं टीचर से इतने सवाल करती कि वह भाग जाता या मैं ही पापा से
कहती गाइड पढ कर आता है, कुछ पूछो तो कल बताउंगा कहता है। मुझे नहीं पढ़ना। जाते
जाते टीचर भी झांसी की रानी कहा जाता।
बचपन से शुरू हुआ यह
सिलसिला दिल्ली तक जारी रहा। मुनीरका विलेज में रहती थी। एक होली पर घर नहीं गई
थी। उस घर मे किचन और बाथरूम कमरे से अटैच नहीं था। मौका देखकर पास की बिल्डिंग के
किसी लड़के बाथरूम से निकलते हुए मुझपर पानी डाल दिया। फिर तो मुझे नहीं पता कहां
से इतनी हिम्मत आ गई। हां मैं एनसीसी कैडेट रही हूं। तो कूदने फांदने में महारथ
हांसिल थी। मैं अपने फर्स्ट फलोर वाले घर से सीढियां उतरना भी जरूरी नहीं समझा
अपनी रेलिंग से उस बिल्डिंग में कूद गई। पूरी बिल्डिंग के चारो फलोर में बने हर एक
कमरे का दरवाजा खटखटाते हुए चिल्ला चिल्ला कर पूरी गली इक्टठी कर ली। आ सामने से पानी डाल। मेरे दोनों बड़े भाई नवीन
और विकास जो घर में ही थे, घबरा कर बाहर आए और सकते में थे। पूछ रहे थे क्या हुआ? मैं गुस्से में गालियां
निकालती हुई पानी डालने वाले को पागलों की तरह ढूंढती रही। बड़ा भाई नवीन बड़ी मुश्किल
से समझा पाया कि आ जाओ वापस, कोई बात नहीं अब कोई पानी नहीं डालेगा। अब मैं पूरी
गली में झांसी की रानी बन चुकी थी। कई वर्षों तक वह ग्लास जिससे मुझपर पानी डाला
गया था मेरे पास ही रहा।
कमला नेहरू कॉलेज, दिल्ली
में भी फेयरवेल वाले दिन जब हंसना गाना हो रहा था और सभी लड़कियों को टाइटिल दिया
जा रहा था तो एक ने आवाज लगाई ‘झांसी की रानी’ और सभी ने एक साथ मेरी ओर इशारा
किया ‘पूजा मेहरोत्रा’।
अब बड़ा सवाल था ‘मैं ही क्यूं’?
नौकरी के दौरान भी झांसी की
रानी वाले नाम से मेरा पीछा नही छूटा। बीच बीच में कभी बॉस तो कभी साथियों ने ये
नाम देना जारी रखा। अमर उजाला के दौरान होली के समय नामाकरण के दौरान शायद यही नाम
दिया गया था।
दिल्ली में पिछले दिनों
विश्व पुस्तक मेला में एक दिन फिर मेरा पीछा झांसी की रानी ने किया। इक्तेफाक
से जहां मैं पहुंची वहां जानेमाने लेखक आबिद सूरती जी बैठे हुए थे। मैं धीरे धीरे
उनकी तरफ हाथ जोड़े बढ रही थी। पब्लिशर पीयूष जी ने भी नमस्कार करते हुए कहा पूजा
आप डब्बू जी को जानती ही हैं। मैं मुस्कुराई और हां मे सिर हिलाया। अभी मैं कुछ
कहती कि पीयूष ने मेरा परिचय एक बार फिर झांसी की रानी पूजा मेहरोत्रा कह कर करा दिया। मैं सकते में। अब तो मैं शांत हूं, जब तक सिर से पानी निकलने न लगे जवाब
भी नहीं देती। पिछले पांच सात सालों में तो और भी संजीदा हो गई हूं। बोलती भी
नहीं। जवाब देने से बचने लगी हूं। फिर अब क्यूं झांसी की रानी?
अभी मेरे अंदर सवाल चल ही
रहे थे कि आबिद सूरती साहब जी पर मेरी नजर परी। वह मुस्कुराते हुए मुझे ही देख
रहे थे। मेरी इंडेक्स फिंगर मेरे बालों में और मैं भी मुस्कुरा दी।
सर ने कहा और क्यूं है आप
झांसी की रानी?
मैं क्या जवाब दूं, मैंने
कहा पता नहीं बचपन से ये नाम मेरा पीछा कर रहा है। अब तो मैं झगड़ती भी नहीं जवाब
भी नहीं देती पता नहीं क्यों?
तब तक हमारी कई तरह की
बातें शुरू हो चुकी थीं।
कहां काम करती हैं पूजा
सर इन दिनों फ्रीलांसिंग कर
रही हूं।
पहले कहां थी,
शुक्रवार वीकली में थी।
विष्णु नागर जी के साथ,
जी।
अरे उन्होंने तो मुझ पर
पूरा एक अंक निकाला था, आप शायद तब नहीं होंगी वहां,
मैंने कहा, जी मैं थी, जब
सर ने वहां ज्वाइन किया तो मैं थी वहां। बातचीत शुरू रही।
पीयूष आ चुके थे, मैंने
पूछा मैं झांसी की रानी क्यूं हूं सर पूछ रहे हैं।
पीयूष ने मेरा परिचय देना
शुरू किया और मैं शर्म से झुकती चली गई। मेरे झांसी की रानी होने की वजह मेरा
जुझारू होना, जिंदादिल होना और न जाने क्या क्या। ओह, इतनी तारीफ तो जिंदगी में
कभी नहीं सुनी थी। मैंने धीरे से चुटकी काटी सचमुच मेरे लिए ही इतनी जबरदस्त
बातें कहीं गई। थैंक्स पीयूष जी। खामखां मैं जिंदगी भर खुद को झांसी की रानी नाम
दिए जाने पर कोसती रही।
आबिद सर, हमारी बातें और समय तेजी से भाग रहा
था। कब दो घंटे बीत गए पता ही नहीं चला। जिसमें सूरती सर ने ट्रेन में लड़कियों के
कोच से पकड़े जाने का एक किस्सा तो सुनाया साथ ही अपने डीडीएफ फाउंडेशन से जुड़ी
रोचक बातें मजेदार अंदाज में बता रहे थे।
किसी को पढ़ना और उससे उसकी
बातें सुनना अलग अलग बातें हैं। मेरा उनसे प्रभावित होना स्वभाविक था। बातों
बातों में अपनी वीरता से जुड़े एक दो किस्से मैंने भी सुना दिए। मैं तब चौंक गई
जब सर ने भी बहुत आनंद लेते हुए मेरी बातें सुनी और बीच में ही बिना समय गंवाए हुए
कहा- किताब लिखो। क्या कर रही हो। बेस्ट सेलर बनेगी। कितनी लड़कियों के लिए रोल
मॉडल बन जाओगी। मैं रोल मॉडल
अभी मैं सोच रही थी कि
दूसरा सवाल आया,
क्या नागर जी ने ये बातें
सुनी थीं लिखने के लिए नहीं कहा, मैंने कहा जी, छपी भी स्टोरी। बातें खत्म होने
का नाम नहीं ले रही थी और मेरे निकलने का समय हो रहा था। अभी मैं निकलने की
गुजारिश करती कि उससे पहले ही कहा एक फोटो हमारी बनती है। हां सर बिलकुल। लेकिन तुम्हें
मेरे पास आना होगा। अब मैं ठहरी झांसी की रानी मैं कहां सुनने वाली थी, मैंने कहा
सर आपको आना होगा। अभी हमारी बातें चल रही थीं कि मैंने उन्हें बताया कि रोशनी
मेरे चेहरे पर आ रही है इसलिए फोटो इधर ही अच्छी आएगी। जिस तरह से फलों से लदा फल
हमेशा झुका रहता है, सर उठकर मेरे पास आए और हमने हंसते हुए फोटो खिचवाईं। मुझे
मुंबई बुलाया और कहा मुंबई को तुम्हारा इंतजार है। उन्होंने कहा मैं अनमोल हूं और मुझे खुद को अनमोल ही मानना चाहिए।
एक बार फिर किसी ने अनमोल कहा है। अब मैं हूं ‘अनमोल’ या ‘झांसी की रानी’ या
दोनों।
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