Wednesday 22 April 2015

मरो किसानों मरो कि हम राजनीति करते हैं

आपके बीच में झूलता किसान
पूजा मेहरोत्रा
देश के किसान मर रहे हैं। पहले भी मरते रहे हैं और आगे भी मरते रहेंगे। कभी प्राक़तिक आपदा उन्‍हें मारती रही है तो कभी गरीबी उनका खून चूसती रही है। शरीर में कुछ बच गया तो देश के ठेकेदारों की राजनीति उन्‍हें मार रही है। पिछले दो महीने से कोई ऐसा दिन नहीं बीता जब किसानों की मौत और आत्‍महत्‍या की खबरें न आई हों। उनकी मौत पर राजनीति चमकाने के लिए देश के नेताओं ने बड़ी बड़ी बातें न की हो, मुआवजा देने के लिए बडे बडे ऐलान न किए हों। लेकिन परिणाम फिर भी वही है मरता किसान।  
 हद तो तब हो गई जब अपने आपको संवेदनशील गरीबों की सरकार, गरीबों की आवाज बन कर आया बताने वाले के सामने ही एक किसान झूल गया। दरिंदगी देखिए, संवेदनहीनता की पराकाष्‍ठा देखिए, इंसानियत का मुखौटा ओढे इन बहरूपीओं को देखिए एक भी ठेकेदार नहीं उठा। जानते थे वो झूलने जा रहा है, सभी राजनीति गर्म कर रहे थे। उसे जाने दे रहे थे। जिसके लिए बारात सजाई गई थी, बैंड बाजे बजाए जा रहे थे,  बातों की तान छेडी जा रही थी, राजनीति की आग में कराडी रोटी सेकी जा रही थी वही दूल्‍हा किसान झूल गया। उसे झूलने दिया गया। मीडिया की आंखें खबरे बना रही थीं। लाइव टेलीकास्‍ट हो रहा था। ब्रेकिंग न्‍यूज हर चैनल पर फलैश हो रहा था। किसान मर रहा था। खबरिया चैनलों के पत्रकार हांफते हांफते खबरे दिखा रहे थे। किसान उनके लिए बस एक खबर था, सिर्फ खबर।   टीआरपी टीआरपी का खेल था वो किसान। पेड पर झूलने वाला गरीब किसान था, उसने हाथों में झाडू उठा रखी थी। उसे सफाई की उम्‍मीद थी लेकिन वह भी क्‍या जानता था कि ये आप के ठेकेदार उसकी मौत पर भी मजे लेंगे। रोटी को सेकने के लिए और लकडी लगाएंगे। जब देखा आंच तेज हो गई रोटी तो जल रही है, तो खुद की रोटी बचाने के लिए एकबार फिर पुलिस को बीच में घसीटा। भगवान का भी सहारा लिया।
किसी का कुछ नहीं गया। गया तो परिवार का एक लाल गया, तीन बच्‍चों का बाप गया, मां की आंख का तारा और बीबी का सहारा गया और जमीन का रखवाला गया। क्‍या पता उसके खेत का गेहूं, चावल क्‍या हमारे आपके पेट में जाता रहा होगा। लेकिन क्या करना है ये जानकर कि कौन मर रहा है, क्‍यों मर रहा है, हम जिनकी पीठ पर चढ कर आज सरताज बने हैं वो लुटता है लुटे, मरता है मरे हमारी रोटी तो किसी किसान का बेटा जो आज रसोइया बन चुका है बना ही देगा।
किसान के घर अनाज का दाना नहीं बचा है। वह दाने दाने को मोहताज हो रहा है लेकिन ये राजनीति के दंरिदें रोटी जला नहीं राख करने में तुले हैं। एक किसान हजारों के बीच में अपने, परिवार के और अपने मासूमों के अरमानों को झूलता हुआ छोड कर जाने के लिए पेड़ से आवाजें लगा रहा था। और उसी पेड़ के नीचे आप का जयकारा लग रहा था। वह झूल गया, झूलता रहा। आप राजनीति करते रहे। वोट बैंक बनाते रहे। बेचारे की हलक में एक दो सांसे बची होगी लेकिन जब बचाने वाले नौसिखिया हों तोबचाना किसे था। उसे तो पेड से बचाने के नाम पर जमीन पर फेंक दिया गया। उसे बचाना भी कौन चाहता था। वहां तो सभी इकटठे ही उसे मारने के लिए हुए थे। एक और किसान राजनीति की भेंट चढ गया। लेकिन इन सबके बीच अगर नहीं रुकी तो ‘आप’की, हाथ की और चाय लेकर फूल खिला रहे साहब की राजनीति । चढाइए तवा बनाइए रोटी।
 अब भी कहा पेट भरा था इनका। कल तक बिजली की नंगी तारों को जोडने के लिए कहीं भी चढ जाने वाला, सियासत की बलीवेदी पर अपने आपको स्‍वाहा कर देने के लिए 10 दिनों तक पानी पर रहने वाला वो आम आदमी खास बना हुआ था। वह देख रहा था कि गरीब किसान पेड़ पर चढ रहा है, उसे लगा राजनीति गरम होगी। उसे क्‍या पता था आज की रात वो खूनी हो जाएगा। आवाजें लगा वह उसे बचाना नहीं चाह रहा था राजनीति कर रहा था। उसकी खासियत ये थी कि न वो उठा और न ही उसने अपने साथियों को ही उसे बचाने के लिए ही कोई आदेश दिया। क्‍या बेचारगी की गरीब सरकार चुनी है दिल्‍ली वालों ने। आज मैं दावे के साथ कह सकती हूं जिन लोगों ने झाडू उठाई थी उसे सफाई का हथ्यिार बताया था कल से वे उसे घर के उस कोने में रख देंगे जहां उसे कोई न देख सके। कल अपने ऑफिस में पुलिस कमिशनर के मुंह पर फाइल फेंकने वाला अपने आपको लाचार बता रहा था। कहां हैं वो थप्‍पड मारने वाले आ जाओ मैदान में आज तुम्‍हारी जरूरत है। अगर आपका चेहरा ऐसा है तो धिक्‍कार है आप पर। आपके वोट पर और आपकी राजनीति पर। क्‍या आज रात नींद आएगी उन हत्‍यारों को। कब तक इस राजनीति की आग में ईंधन बनेंगे किसान।
देश की राजधानी में हजारों लोगों के सामने किसी का यूं झूल जाना और उसका किसी को बचाने के लिए आगे न आना संवेदनहीनता नहीं तो क्‍या है। आपने ट्वीट किया, क्‍या संवेदनशीलता थी आपकी। आइए सामने देश को जरूरत है, खुद बांटिए उनको खुशियां। ऐलान मत कीजिए। मेक इन इंडिया बाद में कर लीजिएगा पहले किसान बचाइए। ये है असली मेक इन इंउिया।  ऐलान करके जिम्‍मेदारी खत्‍म नहीं होगी। नेता भगवा पहन फूल खिलाए मुंह झुकाए हितैषी बने नहीं चाहिए। हक दीजिए, हमारा हमारे किसान का हक। बाबा तो इतने दुखी थे कि आवाज ही नहीं निकल रही थी। ओह किसान। अब तुम्‍हारी जरूरत नहीं रही है इस देश को। अब गांव नहीं स्‍मार्ट सिटी बनेगा देश वहां किसानों की जरूरत नहीं है।  तुम्‍हारी मौत जरूरी है और तुम्‍हारी मौत पर ये मातम भी जरूरी है। तो एक काम करो तुम मरते ही रहो, आखिर तुमसे ही तो वोट मिलेगा। मरो किसानों मरो कि हम राजनीति करें।



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