डरता वो है जो हारा न हो- नवाजुददीन सिददीकी
नवाजुददीन सिददीकी को अब किसी परिचय की जरूरत नहीं रही है। सभी पहचानते हैं। अब ये भी बताने की जरूरत नहीं रह गई है कि वे कैसे कलाकार हैं। हर किरदार में जो खुद को ऐसा ढालते हैं कि पहचानना मुश्किल हो जाता है कि किरदार है या रीयल। दशरथ मांझी फिल्म की मेकिंग को लेकर लोगों ने कई कई कमियां गिनाई है। किसी को फगुनिया की ड्रेसिंग से प्रॉबलम हुई तो किसी को पूरी फिल्म ही टच नहीं कर पाई। किसी ने कहा केतन ने मेहनत कम की,स्टोरी में दम ही नहंी है और मेहनत की जानी चाहिए थी। ब्ला ब्ला ब्ला।
लेकिन हथौड़ा लिए पहाड़ तोड़ने वाले हमारे नवाज ने सबके दिलों पर एक बार फिर राज किया। फिल्म में कई कई सीन ने दिल को छुआ। नवाज ने एकबार फिर दशरथ को जीवित कर दिया।
नवाज की बैक टू बैक दो फिल्में आई हैं। दोनों ही फिल्मों में उनके निभाए किरदार ने दर्शकों से लेकर फिल्म क्रिटिक तक को लाजवाब कर दिया हैं। चाहें वो बजरंगी में चांद नवाब हों या फिर मांझी। पूरी फिल्म सिर्फ और सिर्फ नवाजुददीन के कंधों उनकी छेनी- हथौड़ी की बदौलत ही आगे बढी है।
नवाजुददीन से बातचीत में जब पूछा कि चांद नवाब और मांझी कौन है दिल के करीब
मुस्कुराते हुए दोनों। लेकिन चांद कैसे माउटेन मैन बना तो बहुत ही संजीदगी से कहते हैं नवाज और दशरथ अलग कहा हैं। दोनों एक ही हैं। मेरे पैशन, पागलपन, जिद और डिटरमिनेशन ने मुझे माझी बनाया। हम दोनों एक जैसे ही है। यही जिद पागलपन हमें दूसरों से अलग बनाती है। आप जब तक अपनी मंजिल पहुंचने के लिए पागलपन की हद तक पागल नहीं होंगे तब तक आप सफल नहीं होंगे।
दशरथ मांझी ने छेनी और हथौड़ी उठाई और पहाड़ तोड़ने निकल पड़े और जब तक तोड़ नहीं लिया तब तक दम नहीं लिया। दशरथ की कहानी सुनने के बाद अपना स्ट्रगल कम लगा या बराबर का- मैंने भी हारना नहीं सीखा है। टूटा तो कई बार, कई बार हार जाता था। सोंचता था वापस जाता हूं लेकिन जैसे ही घर वापसी की सोचना था अंदर से आवाज आती थी अभ्ाी इतनी जल्दी कैसे चला जाउं। मुझे कुछ आता भी तो नहीं था वापस आता तो करता क्या।
कई कई बार जिंदगी से हारने लगता था, टूटने लगता था तब मां सहारा बनती थी। दोस्त बनती थी। हर किसी की जिंदगी में कुछ न कुछ चैलेंज होता ही है। बस उस चैलेंज को कौन कैसे जीता हैं ये महत्वपूर्ण होता है।
बिहार कैसा लगा तो मुस्कुराते हुए कहा मैं यूपी के गांव का ही हूं। दोनों राज्यों, उनके गांवों और रहन सहन में अंतर नहंी है। डेढ महीने हमारी टीम बिहार में रही। पूरा गांव फिल्म की यूनिट की तरह काम कर रहा था। बहुत मजा आया। हम सुबह तीन बजे से शूटिंग के लिए तैयार होते डेढ घंटे का सफर तय करके वहां पहुंचते और फिर पहाड़ चढते थे।
फिल्म एक ऐसा माध्यम है जहां आप फिल्म करते करते जिंदगी को बहुत करीब से देखते हैं। मांझी में मैं एक ही दिन में तीन तीन जिंदगी जी रहा था। सुबह मैं एक 22 साल का रोमांटिक लड़का होता था, दोपहर होते होते मुझे 45 साल का आदमी का किरदार निभाना होता था और रात होते होते मेरा पूरा गेटअप 66 साल के बुजुर्ग का होता था। एक दिन में मैं तीन तीन उम्र आप सोचिए लेकिन बहुत इंजॉय किया।
यही तो चाहता था जिंदगी से मैं। लेकिन मैं कभी नहीं भूलता हूं फिल्म में कई प्रयोग किए जाते हैं जहां आप भले ही किरदार कर रहे होते हैं लेकिन कभी नहीं भूलना चाहिए कि एक जिंदगी वो भी है। जिसे किसी ने जिया है। मैंने कई तरह का काम किया है। शॉट फिल्में की हैं।
हमें सोचना होगा क्योंकि ये समय हमारा है, हम क्या दे रहे हैं समाज को, जवाब मिलता है कुछ नहीं। हमारा पूरा समाज सेल्फ सेंटर्ड है। खुद के बारे में सोच रहा है। हमारी जिंदगी हमारी जॉब, हमारी सैलरी हम इससे आगे नहीं बढ रहे हैं। आज हमारा युवा वर्ग असुरक्षित है। वो अपने आगे कुछ नहंी सोच रहा है।
पिछले कुछ सालों में आपकी एक्टिंग को पहचानन फिल्म इंडस्ट्री में मिली और अब आपका बहुत बड़ा फैन फॉलोइंग है क्या लगता है दुख भरे दिन बीते रे भइया अब सुख्ा आयो रे - मुस्कुराते हुए नवाज की आंखों में चमक के साथ एक सूनापन भी दिखाई देता है। वे संजीदगी से कहते हैं जिंदगी बहुत तेजी से बदल रही है। आज मुझे सभी पहचानने भी लगे हैं लेकिन मेरा स्ट्रगल खत्म कहां हुआ है। सभी को लग रहा है मैं अपनी मंजिल तक पहुंच चुका हूं लेकिन मैं जब देखता हूं खुद को तो मैं पाता हूं कि मैंने कुछ नहीं पाया है, कुछ भी एचीव नहीं किया है। अब और डरने लगा हूं। लोगों की आकांक्षाएं, आशांए एक्सपेकटेशन बढ़ गई है। आज अभी सफल हैं अभी असफल हैं। कुछ भी स्थाई नहीं हैं यहां।
तो क्या फेल होने से डरने लगे हैं- डरता वो है जो फेल न हुआ हो, अभी तो मैं पास ही नहीं हुआ हूं तो डरना किससे है। ये थी नवाजुददीन सिददीकी से छोटी सी मुलाकात
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